जितने भी लोग महाभारत को काल्पनिक बताते हैं.... उनके मुंह पर पर एक जोरदार
तमाचा है आज का यह पोस्ट...! महाभारत के बाद से आधुनिक काल तक के सभी
राजाओं का विवरण क्रमवार तरीके से नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है...! आपको
यह जानकर एक बहुत ही आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी होगी कि महाभारत युद्ध के
पश्चात् राजा युधिष्ठिर की 30 पीढ़ियों ने 1770 वर्ष 11 माह 10 दिन तक
राज्य किया था..... जिसका पूरा विवरण इस प्रकार है :
क्र................... शासक का नाम.......... वर्ष....माह.. दिन
1. राजा युधिष्ठिर (Raja Yudhisthir)..... 36.... 08.... 25
2 राजा परीक्षित (Raja Parikshit)........ 60.... 00..... 00
3 राजा जनमेजय (Raja Janmejay).... 84.... 07...... 23
4 अश्वमेध (Ashwamedh )................. 82.....08..... 22
5 द्वैतीयरम (Dwateeyram )............... 88.... 02......08
6 क्षत्रमाल (Kshatramal)................... 81.... 11..... 27
7 चित्ररथ (Chitrarath)...................... 75......03.....18
8 दुष्टशैल्य (Dushtashailya)............... 75.....10.......24
9 राजा उग्रसेन (Raja Ugrasain)......... 78.....07.......21
10 राजा शूरसेन (Raja Shoorsain).......78....07........21
11 भुवनपति (Bhuwanpati)................69....05.......05
12 रणजीत (Ranjeet).........................65....10......04
13 श्रक्षक (Shrakshak).......................64.....07......04
14 सुखदेव (Sukhdev)........................62....00.......24
15 नरहरिदेव (Narharidev).................51.....10.......02
16 शुचिरथ (Suchirath).....................42......11.......02
17 शूरसेन द्वितीय (Shoorsain II)........58.....10.......08
18 पर्वतसेन (Parvatsain )..................55.....08.......10
19 मेधावी (Medhawi)........................52.....10......10
20 सोनचीर (Soncheer).....................50.....08.......21
21 भीमदेव (Bheemdev)....................47......09.......20
22 नरहिरदेव द्वितीय (Nraharidev II)...45.....11.......23
23 पूरनमाल (Pooranmal)..................44.....08.......07
24 कर्दवी (Kardavi)...........................44.....10........08
25 अलामामिक (Alamamik)...............50....11........08
26 उदयपाल (Udaipal).......................38....09........00
27 दुवानमल (Duwanmal)..................40....10.......26
28 दामात (Damaat)..........................32....00.......00
29 भीमपाल (Bheempal)...................58....05........08
30 क्षेमक (Kshemak)........................48....11........21
इसके बाद ....क्षेमक के प्रधानमन्त्री विश्व ने क्षेमक का वध करके राज्य को
अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 14 पीढ़ियों ने 500 वर्ष 3 माह 17 दिन तक
राज्य किया जिसका विरवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 विश्व (Vishwa)......................... 17 3 29
2 पुरसेनी (Purseni)..................... 42 8 21
3 वीरसेनी (Veerseni).................. 52 10 07
4 अंगशायी (Anangshayi)........... 47 08 23
5 हरिजित (Harijit).................... 35 09 17
6 परमसेनी (Paramseni)............. 44 02 23
7 सुखपाताल (Sukhpatal)......... 30 02 21
8 काद्रुत (Kadrut)................... 42 09 24
9 सज्ज (Sajj)........................ 32 02 14
10 आम्रचूड़ (Amarchud)......... 27 03 16
11 अमिपाल (Amipal) .............22 11 25
12 दशरथ (Dashrath)............... 25 04 12
13 वीरसाल (Veersaal)...............31 08 11
14 वीरसालसेन (Veersaalsen).......47 0 14
इसके उपरांत...राजा वीरसालसेन के प्रधानमन्त्री वीरमाह ने वीरसालसेन का वध
करके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 16 पीढ़ियों ने 445 वर्ष 5
माह 3 दिन तक राज्य किया जिसका विरवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 राजा वीरमाह (Raja Veermaha)......... 35 10 8
2 अजितसिंह (Ajitsingh)...................... 27 7 19
3 सर्वदत्त (Sarvadatta)..........................28 3 10
4 भुवनपति (Bhuwanpati)...................15 4 10
5 वीरसेन (Veersen)............................21 2 13
6 महिपाल (Mahipal)............................40 8 7
7 शत्रुशाल (Shatrushaal).....................26 4 3
8 संघराज (Sanghraj)........................17 2 10
9 तेजपाल (Tejpal).........................28 11 10
10 मानिकचंद (Manikchand)............37 7 21
11 कामसेनी (Kamseni)..................42 5 10
12 शत्रुमर्दन (Shatrumardan)..........8 11 13
13 जीवनलोक (Jeevanlok).............28 9 17
14 हरिराव (Harirao)......................26 10 29
15 वीरसेन द्वितीय (Veersen II)........35 2 20
16 आदित्यकेतु (Adityaketu)..........23 11 13
ततपश्चात् प्रयाग के राजा धनधर ने आदित्यकेतु का वध करके उसके राज्य को
अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 9 पीढ़ी ने 374 वर्ष 11 माह 26 दिन तक
राज्य किया जिसका विवरण इस प्रकार है ..
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 राजा धनधर (Raja Dhandhar)...........23 11 13
2 महर्षि (Maharshi)...............................41 2 29
3 संरछि (Sanrachhi)............................50 10 19
4 महायुध (Mahayudha).........................30 3 8
5 दुर्नाथ (Durnath)...............................28 5 25
6 जीवनराज (Jeevanraj).......................45 2 5
7 रुद्रसेन (Rudrasen)..........................47 4 28
8 आरिलक (Aarilak)..........................52 10 8
9 राजपाल (Rajpal)..............................36 0 0
उसके बाद ...सामन्त महानपाल ने राजपाल का वध करके 14 वर्ष तक राज्य किया।
अवन्तिका (वर्तमान उज्जैन) के विक्रमादित्य ने महानपाल का वध करके 93 वर्ष
तक राज्य किया। विक्रमादित्य का वध समुद्रपाल ने किया और उसकी 16 पीढ़ियों
ने 372 वर्ष 4 माह 27 दिन तक राज्य किया !
जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 समुद्रपाल (Samudrapal).............54 2 20
2 चन्द्रपाल (Chandrapal)................36 5 4
3 सहपाल (Sahaypal)...................11 4 11
4 देवपाल (Devpal).....................27 1 28
5 नरसिंहपाल (Narsighpal).........18 0 20
6 सामपाल (Sampal)...............27 1 17
7 रघुपाल (Raghupal)...........22 3 25
8 गोविन्दपाल (Govindpal)........27 1 17
9 अमृतपाल (Amratpal).........36 10 13
10 बालिपाल (Balipal).........12 5 27
11 महिपाल (Mahipal)...........13 8 4
12 हरिपाल (Haripal)..........14 8 4
13 सीसपाल (Seespal).......11 10 13
14 मदनपाल (Madanpal)......17 10 19
15 कर्मपाल (Karmpal)........16 2 2
16 विक्रमपाल (Vikrampal).....24 11 13
टिप : कुछ ग्रंथों में सीसपाल के स्थान पर भीमपाल का उल्लेख मिलता है, सम्भव है कि उसके दो नाम रहे हों।
इसके उपरांत .....विक्रमपाल ने पश्चिम में स्थित राजा मालकचन्द बोहरा के
राज्य पर आक्रमण कर दिया जिसमे मालकचन्द बोहरा की विजय हुई और विक्रमपाल
मारा गया। मालकचन्द बोहरा की 10 पीढ़ियों ने 191 वर्ष 1 माह 16 दिन तक
राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 मालकचन्द (Malukhchand) 54 2 10
2 विक्रमचन्द (Vikramchand) 12 7 12
3 मानकचन्द (Manakchand) 10 0 5
4 रामचन्द (Ramchand) 13 11 8
5 हरिचंद (Harichand) 14 9 24
6 कल्याणचन्द (Kalyanchand) 10 5 4
7 भीमचन्द (Bhimchand) 16 2 9
8 लोवचन्द (Lovchand) 26 3 22
9 गोविन्दचन्द (Govindchand) 31 7 12
10 रानी पद्मावती (Rani Padmavati) 1 0 0
रानी पद्मावती गोविन्दचन्द की पत्नी थीं। कोई सन्तान न होने के कारण
पद्मावती ने हरिप्रेम वैरागी को सिंहासनारूढ़ किया जिसकी पीढ़ियों ने 50
वर्ष 0 माह 12 दिन तक राज्य किया !
जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 हरिप्रेम (Hariprem) 7 5 16
2 गोविन्दप्रेम (Govindprem) 20 2 8
3 गोपालप्रेम (Gopalprem) 15 7 28
4 महाबाहु (Mahabahu) 6 8 29
इसके बाद.......राजा महाबाहु ने सन्यास ले लिया । इस पर बंगाल के अधिसेन ने
उसके राज्य पर आक्रमण कर अधिकार जमा लिया। अधिसेन की 12 पीढ़ियों ने 152
वर्ष 11 माह 2 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 अधिसेन (Adhisen) 18 5 21
2 विल्वसेन (Vilavalsen) 12 4 2
3 केशवसेन (Keshavsen) 15 7 12
4 माधवसेन (Madhavsen) 12 4 2
5 मयूरसेन (Mayursen) 20 11 27
6 भीमसेन (Bhimsen) 5 10 9
7 कल्याणसेन (Kalyansen) 4 8 21
8 हरिसेन (Harisen) 12 0 25
9 क्षेमसेन (Kshemsen) 8 11 15
10 नारायणसेन (Narayansen) 2 2 29
11 लक्ष्मीसेन (Lakshmisen) 26 10 0
12 दामोदरसेन (Damodarsen) 11 5 19
लेकिन जब ....दामोदरसेन ने उमराव दीपसिंह को प्रताड़ित किया तो दीपसिंह ने
सेना की सहायता से दामोदरसेन का वध करके राज्य पर अधिकार कर लिया तथा उसकी 6
पीढ़ियों ने 107 वर्ष 6 माह 22 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया
जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 दीपसिंह (Deepsingh) 17 1 26
2 राजसिंह (Rajsingh) 14 5 0
3 रणसिंह (Ransingh) 9 8 11
4 नरसिंह (Narsingh) 45 0 15
5 हरिसिंह (Harisingh) 13 2 29
6 जीवनसिंह (Jeevansingh) 8 0 1
पृथ्वीराज चौहान ने जीवनसिंह पर आक्रमण करके तथा उसका वध करके राज्य पर
अधिकार प्राप्त कर लिया। पृथ्वीराज चौहान की 5 पीढ़ियों ने 86 वर्ष 0 माह
20 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 पृथ्वीराज (Prathviraj) 12 2 19
2 अभयपाल (Abhayapal) 14 5 17
3 दुर्जनपाल (Durjanpal) 11 4 14
4 उदयपाल (Udayapal) 11 7 3
5 यशपाल (Yashpal) 36 4 27
विक्रम संवत 1249 (1193 AD) में मोहम्मद गोरी ने यशपाल पर आक्रमण कर उसे
प्रयाग के कारागार में डाल दिया और उसके राज्य को अधिकार में ले लिया।
उपरोक्त जानकारी
http://www.hindunet.org/
से साभार ली गई है जहाँ पर इस जानकारी का स्रोत स्वामी दयानन्द सरस्वती के
सत्यार्थ प्रकाश ग्रंथ, चित्तौड़गढ़ राजस्थान से प्रकाशित पत्रिका
हरिशचन्द्रिका और मोहनचन्द्रिका के विक्रम संवत1939 के अंक और कुछ अन्य
संस्कृत ग्रंथों को बताया गया है।
साभार ....जी.के. अवधिया |
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अब देखिए भारत सरकार द्वारा लिपिबद्ध किया गया
भारत का इतिहास
प्राचीन इतिहास
भारत का इतिहास और संस्कृति गतिशील है और यह मानव सभ्यता की शुरूआत तक
जाती है। यह सिंधु घाटी की रहस्यमयी संस्कृति से शुरू होती है और भारत के
दक्षिणी इलाकों में किसान समुदाय तक जाती है। भारत के इतिहास में भारत के
आस पास स्थित अनेक संस्कृतियों से लोगों का निरंतर समेकन होता रहा है।
उपलब्ध साक्ष्य सुझाते हैं कि लोहे, तांबे और अन्य धातुओं के उपयोग काफी
शुरूआती समय में भी भारतीय उप महाद्वीप में प्रचलित थे, जो दुनिया के इस
हिस्से द्वारा की गई प्रगति का संकेत है। चौंथी सहस्राब्दि बी. सी. के अंत
तक भारत एक अत्यंत विकसित सभ्यता के क्षेत्र के रूप में उभर चुका था।
सिंधु घाटी की सभ्यता
भारत का इतिहास सिंधु घाटी की सभ्यता के जन्म के साथ आरंभ हुआ, और अधिक
बारीकी से कहा जाए तो हड़प्पा सभ्यता के समय इसकी शुरूआत मानी जाती है।
यह दक्षिण एशिया के पश्चिमी हिस्से में लगभग 2500 बीसी में फली फूली, जिसे
आज पाकिस्तान और पश्चिमी भारत कहा जाता है। सिंधु घाटी मिश्र,
मेसोपोटामिया, भारत और चीन की चार प्राचीन शहरी सबसे बड़ी सभ्यताओं का घर
थी। इस सभ्यता के बारे में 1920 तक कुछ भी ज्ञात नहीं था, जब भारतीय
पुरातात्विक विभाग ने सिंधु घाटी की खुदाई का कार्य आरंभ किया, जिसमें दो
पुराने शहरों अर्थात मोहन जोदाड़ो और हड़प्पा के भग्नावशेष निकल कर आए।
भवनों के टूटे हुए हिस्से और अन्य वस्तुएं जैसे कि घरेलू सामान, युद्ध
के हथियार, सोने और चांदी के आभूषण, मुहर, खिलौने, बर्तन आदि दर्शाते हैं
कि इस क्षेत्र में लगभग पांच हजार साल पहले एक अत्यंत उच्च विकसित
सभ्यता फली फूली।
सिंधु घाटी की सभ्यता मूलत: एक शहरी सभ्यता थी और यहां रहने वाले लोग एक
सुयोजनाबद्ध और सुनिर्मित कस्बों में रहा करते थे, जो व्यापार के
केन्द्र भी थे। मोहन जोदाड़ो और हड़प्पा के भग्नावशेष दर्शाते हैं कि
ये भव्य व्यापारिक शहर वैज्ञानिक दृष्टि से बनाए गए थे और इनकी देखभाल
अच्छी तरह की जाती थी। यहां चौड़ी सड़कें और एक सुविकसित निकास प्रणाली
थी। घर पकाई गई ईंटों से बने होते थे और इनमें दो या दो से अधिक मंजिलें
होती थी।
उच्च विकसित सभ्यता हड़प्पा में अनाज, गेहूं और जौ उगाने की कला ज्ञात
थी, जिससे वे अपना मोटा भोजन तैयार करते थे। उन्होंने सब्जियों और फल तथा
मांस, सुअर और अण्डे का सेवन भी किया। साक्ष्य सुझाव देते हैं कि ये ऊनी
तथा सूती कपड़े पहनते थे। वर्ष 1500 से बी सी तक हड़प्पन सभ्यता का अंत
हो गया। सिंधु घाटी की सभ्यता के नष्ट हो जाने के प्रति प्रचलित अनेक
कारणों में शामिल है आर्यों द्वारा आक्रमण, लगातार बाढ़ और अन्य प्राकृतिक
विपदाओं का आना जैसे कि भूकंप आदि।
वैदिक सभ्यता
प्राचीन भारत के इतिहास में वैदिक सभ्यता सबसे प्रारंभिक सभ्यता है जिसका
संबंध आर्यों के आगमन से है। इसका नामकरण हिन्दुओं के प्रारम्भिक
साहित्य वेदों के नाम पर किया गया है। वैदिक सभ्यता सरस्वती नदी के
किनारे के क्षेत्र जिसमें आधुनिक भारत के पंजाब और हरियाणा राज्य आते हैं,
में विकसित हुई। वैदिक आर्यों और हिन्दुओं का पर्यायवाची है, यह वेदों से
निकले धार्मिक और आध्यात्मिक विचारों का दूसरा नाम है। बड़े पैमाने पर
स्वीकार दृष्टिकोणों के अनुसार आर्यों का एक वर्ग भारतीय उप महाद्वीप की
सीमाओं पर ईसा पूर्व 2000 के आसपास पहुंचा और पहले पंजाब में बस गया, और
यही ऋगवेद के स्त्रोतों की रचना की गई।
आर्य जन जनजातियों में रहते थे और संस्कृत भाषा का उपयोग करते थे, जो
भाषाओं के भारतीय - यूरोपीय समूह के थे। क्रमश: आर्य स्थानीय लोगों के साथ
मिल जुल गए और आर्य जनजातियों तथा मूल अधिवासियों के बीच एक ऐतिहासिक
संश्लेषण हुआ। यह संश्लेषण आगे चलकर हिन्दुत्व कहलाया। इस अवधि के दो
महान ग्रंथ रामायण और महाभारत थे।
बौद्ध युग
भगवान गौतम बुद्ध के जीवनकाल में, ईसा पूर्व 7 वीं और शुरूआती 6 वीं
शताब्दि के दौरान सोलह बड़ी शक्तियां (महाजनपद) विद्यमान थे। अति
महत्वपूर्ण गणराज्यों में कपिलवस्तु के शाक्य और वैशाली के लिच्छवी
गणराज्य थे। गणराज्यों के अलावा राजतंत्रीय राज्य भी थे, जिनमें से
कौशाम्बी (वत्स), मगध, कोशल, और अवन्ति महत्वपूर्ण थे। इन राज्यों का
शासन ऐसे शक्तिशाली व्यक्तियों के पास था, जिन्होंने राज्य विस्तार और
पड़ोसी राज्यों को अपने में मिलाने की नीति अपना रखी थी। तथापि
गणराज्यात्मक राज्यों के तब भी स्पष्ट संकेत थे जब राजाओं के अधीन
राज्यों का विस्तार हो रहा था।
बुद्ध का जन्म ईसा पूर्व 560 में हुआ और उनका देहान्त ईसा पूर्व 480 में
80 वर्ष की आयु में हुआ। उनका जन्म स्थान नेपाल में हिमालय पर्वत श्रंखला
के पलपा गिरि की तलहटी में बसे कपिलवस्तु नगर का लुम्बिनी नामक निकुंज
था। बुद्ध, जिनका वास्तविक नाम सिद्धार्थ गौतम था, ने बुद्ध धर्म की
स्थापना की जो पूर्वी एशिया के अधिकांश हिस्सों में एक महान संस्कृति के
रूप में विकसित हुआ।
सिकंदर का आक्रमण
ईसा पूर्व 326 में सिकंदर सिंधु नदी को पार करके तक्षशिला की ओर बढ़ा व
भारत पर आक्रमण किया। तब उसने झेलम व चिनाब नदियों के मध्य अवस्थ्ति
राज्य के राजा पौरस को चुनौती दी। यद्यपि भारतीयों ने हाथियों, जिन्हें
मेसीडोनिया वासियों ने पहले कभी नहीं देखा था, को साथ लेकर युद्ध किया,
परन्तु भयंकर युद्ध के बाद भारतीय हार गए। सिकंदर ने पौरस को गिरफ्तार कर
लिया, तथा जैसे उसने अन्य स्थानीय राजाओं को परास्त किया था, की भांति
उसे अपने क्षेत्र पर राज्य करने की अनुमति दे दी।
दक्षिण में हैडासयस व सिंधु नदियों की ओर अपनी यात्रा के दौरान, सिकंदर ने
दार्शनिकों, ब्राह्मणों, जो कि अपनी बुद्धिमानी के लिए प्रसिद्ध थे, की
तलाश की और उनसे दार्शनिक मुद्दों पर बहस की। वह अपनी बुद्धिमतापूर्ण
चतुराई व निर्भय विजेता के रूप में सदियों तक भारत में किवदंती बना रहा।
उग्र भारतीय लड़ाके कबीलों में से एक मालियों के गांव में सिकन्दर की सेना
एकत्रित हुई। इस हमले में सिकन्दर कई बार जख्मी हुआ। जब एक तीर उसके
सीने के कवच को पार करते हुए उसकी पसलियों में जा घुसा, तब वह बहुत गंभीर
रूप से जख्मी हुआ। मेसेडोनियन अधिकारियों ने उसे बड़ी मुश्किल से बचाकर
गांव से निकाला।
सिकन्दर व उसकी सेना जुलाई 325 ईसा पूर्व में सिंधु नदी के मुहाने पर पहुंची, तथा घर की ओर जाने के लिए पश्चिम की ओर मुड़ी।
मौर्य साम्राज्य
मौर्य साम्राज्य की अवधि (ईसा पूर्व 322 से ईसा पूर्व 185 तक) ने भारतीय
इतिहास में एक युग का सूत्रपात किया। कहा जाता है कि यह वह अवधि थी जब
कालक्रम स्पष्ट हुआ। यह वह समय था जब, राजनीति, कला, और वाणिज्य ने भारत
को एक स्वर्णिम ऊंचाई पर पहुंचा दिया। यह खंडों में विभाजित राज्यों के
एकीकरण का समय था। इससे भी आगे इस अवधि के दौरान बाहरी दुनिया के साथ
प्रभावशाली ढंग से भारत के संपर्क स्थापित हुए।
सिकन्दर की मृत्यु के बाद उत्पन्न भ्रम की स्थिति ने राज्यों को
यूनानियों की दासता से मुक्त कराने और इस प्रकार पंजाब व सिंध प्रांतों पर
कब्जा करने का चन्द्रगुप्त को अवसर प्रदान किया। उसने बाद में कौटिल्य
की सहायता से मगध में नन्द के राज्य को समाप्त कर दिया और ईसा पूर्व और
322 में प्रतापी मौर्य राज्य की स्थापना की। चन्द्रगुप्त जिसने 324 से
301 ईसा पूर्व तक शासन किया, ने मुक्तिदाता की उपाधि प्राप्त की व भारत
के पहले सम्राट की उपाधि प्राप्त की।
वृद्धावस्था आने पर चन्द्रगुप्त की रुचि धर्म की ओर हुई तथा ईसा पूर्व
301 में उसने अपनी गद्दी अपने पुत्र बिंदुसार के लिए छोड़ दी। अपने 28 वर्ष
के शासनकाल में बिंदुसार ने दक्षिण के ऊचांई वाले क्षेत्रों पर विजय
प्राप्त की तथा 273 ईसा पूर्व में अपनी राजगद्दी अपने पुत्र अशोक को सौंप
दी। अशोक न केवल मौर्य साम्राज्य का अत्यधिक प्रसिद्ध सम्राट हुआ,
परन्तु उसे भारत व विश्व के महानतम सम्राटों में से एक माना जाता है।
उसका साम्राज्य हिन्दु कुश से बंगाल तक के पूर्वी भूभाग में फैला हुआ था व
अफगानिस्तान, बलूचिस्तान व पूरे भारत में फैला हुआ था, केवल सुदूर
दक्षिण का कुछ क्षेत्र छूटा था। नेपाल की घाटी व कश्मीर भी उसके
साम्राज्य में शामिल थे।
अशोक के साम्राज्य की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी कलिंग विजय (आधुनिक
उड़ीसा), जो उसके जीवन में महत्वपूर्ण बदलाव लाने वाली साबित हुई। कलिंग
युद्ध में भयानक नरसंहार व विनाश हुआ। युद्ध भूमि के कष्टों व अत्याचारों
ने अशोक के हृदय को विदीर्ण कर दिया। उसने भविष्य में और कोई युद्ध न
करने का प्रण कर लिया। उसने सांसरिक विजय के अत्याचारों तथा सदाचार व
आध्यात्मिकता की सफलता को समझा। वह बुद्ध के उपदेशों के प्रति आकर्षित हुआ
तथा उसने अपने जीवन को, मनुष्य के हृदय को कर्तव्य परायणता व धर्म
परायणता से जीतने में लगा दिया।
मौर्य साम्राज्य का अंत
अशोक के उत्तराधिकारी कमज़ोर शासक हुए, जिससे प्रान्तों को अपनी
स्वतंत्रता का दावा करने का साहस हुआ। इतने बड़े साम्राज्य का प्रशासन
चलाने के कठिन कार्य का संपादन कमज़ोर शासकों द्वारा नहीं हो सका।
उत्तराधिकारियों के बीच आपसी लड़ाइयों ने भी मौर्य साम्राज्य के अवनति
में योगदान किया।
ईसवी सन् की प्रथम शताब्दि के प्रारम्भ में कुशाणों ने भारत के उत्तर
पश्चिम मोर्चे में अपना साम्राज्य स्थापित किया। कुशाण सम्राटों में
सबसे अधिक प्रसिद्ध सम्राट कनिष्क (125 ई. से 162 ई. तक), जो कि कुशाण
साम्राज्य का तीसरा सम्राट था। कुशाण शासन ईस्वी की तीसरी शताब्दि के
मध्य तक चला। इस साम्राज्य की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ कला के गांधार
घराने का विकास व बुद्ध मत का आगे एशिया के सुदूर क्षेत्रों में विस्तार
करना रही।
गुप्त साम्राज्य
कुशाणों के बाद गुप्त साम्राज्य अति महत्वपूर्ण साम्राज्य था। गुप्त
अवधि को भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग कहा जाता है। गुप्त साम्राज्य का
पहला प्रसिद्ध सम्राट घटोत्कच का पुत्र चन्द्रगुप्त था। उसने कुमार
देवी से विवाह किया जो कि लिच्छिवियों के प्रमुख की पुत्री थी।
चन्द्रगुप्त के जीवन में यह विवाह परिवर्तन लाने वाला था। उसे
लिच्छिवियों से पाटलीपुत्र दहेज में प्राप्त हुआ। पाटलीपुत्र से उसने अपने
साम्राज्य की आधार शिला रखी व लिच्छिवियों की मदद से बहुत से पड़ोसी
राज्यों को जीतना शुरू कर दिया। उसने मगध (बिहार), प्रयाग व साकेत (पूर्वी
उत्तर प्रदेश) पर शासन किया। उसका साम्राज्य गंगा नदी से इलाहाबाद तक
फैला हुआ था। चन्द्रगुप्त को महाराजाधिराज की उपाधि से विभूषित किया गया
था और उसने लगभग पन्द्रह वर्ष तक शासन किया।
चन्द्रगुप्त का उत्तराधिकारी 330 ई0 में समुन्द्रगुप्त हुआ जिसने लगभग
50 वर्ष तक शासन किया। वह बहुत प्रतिभा सम्पन्न योद्धा था और बताया जाता
है कि उसने पूरे दक्षिण में सैन्य अभियान का नेतृत्व किया तथा विन्ध्य
क्षेत्र के बनवासी कबीलों को परास्त किया।
समुन्द्रगुप्त का उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त हुआ, जिसे विक्रमादित्य
के नाम से भी जाना जाता है। उसने मालवा, गुजरात व काठियावाड़ के बड़े
भूभागों पर विजय प्राप्त की। इससे उन्हे असाधारण धन प्राप्त हुआ और इससे
गुप्त राज्य की समृद्धि में वृद्धि हुई। इस अवधि के दौरान गुप्त राजाओं
ने पश्चिमी देशों के साथ समुद्री व्यापार प्रारम्भ किया। बहुत संभव है
कि उसके शासनकाल में संस्कृत के महानतम कवि व नाटककार कालीदास व बहुत से
दूसरे वैज्ञानिक व विद्वान फले-फूले।
गुप्त शासन की अवनति
ईसा की 5वीं शताब्दि के अन्त व छठवीं शताब्दि में उत्तरी भारत में गुप्त
शासन की अवनति से बहुत छोटे स्वतंत्र राज्यों में वृद्धि हुई व विदेशी
हूणों के आक्रमणों को भी आकर्षित किया। हूणों का नेता तोरामोरा था। वह
गुप्त साम्राज्य के बड़े हिस्सों को हड़पने में सफल रहा। उसका पुत्र
मिहिराकुल बहुत निर्दय व बर्बर तथा सबसे बुरा ज्ञात तानाशाह था। दो
स्थानीय शक्तिशाली राजकुमारों मालवा के यशोधर्मन और मगध के बालादित्य ने
उसकी शक्ति को कुचला तथा भारत में उसके साम्राज्य को समाप्त किया।
हर्षवर्धन
7वीं सदी के प्रारम्भ होने पर, हर्षवर्धन (606-647 इसवी में) ने अपने भाई
राज्यवर्धन की मृत्यु होने पर थानेश्वर व कन्नौज की राजगद्दी संभाली।
612 इसवी तक उत्तर में अपना साम्राज्य सुदृढ़ कर लिया।
620 इसवी में हर्षवर्धन ने दक्षिण में चालुक्य साम्राज्य, जिस पर उस समय
पुलकेसन द्वितीय का शासन था, पर आक्रमण कर दिया परन्तु चालुक्य ने बहुत
जबरदस्त प्रतिरोध किया तथा हर्षवर्धन की हार हो गई। हर्षवर्धन की धार्मिक
सहष्णुता, प्रशासनिक दक्षता व राजनयिक संबंध बनाने की योग्यता जगजाहिर
है। उसने चीन के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए व अपने राजदूत वहां भेजे,
जिन्होने चीनी राजाओं के साथ विचारों का आदान-प्रदान किया तथा एक दूसरे के
संबंध में अपनी जानकारी का विकास किया।
चीनी यात्री ह्वेनसांग, जो उसके शासनकाल में भारत आया था ने, हर्षवर्धन के
शासन के समय सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक स्थितियों का सजीव वर्णन किया है व
हर्षवर्धन की प्रशंसा की है। हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भारत एक बार फिर
केंद्रीय सर्वोच्च शक्ति से वंचित हो गया।
बादामी के चालुक्य
6ठवीं और 8ठवीं इसवी के दौरान दक्षिण भारत में चालुक्य बड़े शक्तिशाली थे।
इस साम्राज्य का प्रथम शासक पुलकेसन, 540 इसवी मे शासनारूढ़ हुआ और कई
शानदार विजय हासिल कर उसने शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना किया। उसके
पुत्रों कीर्तिवर्मन व मंगलेसा ने कोंकण के मौर्यन सहित अपने पड़ोसियों के
साथ कई युद्ध करके सफलताएं अर्जित की व अपने राज्य का और विस्तार किया।
कीर्तिवर्मन का पुत्र पुलकेसन द्वितीय, चालुक्य साम्राज्य के महान शासकों
में से एक था, उसने लगभग 34 वर्षों तक राज्य किया। अपने लम्बे शासनकाल
में उसने महाराष्ट्र में अपनी स्थिति सुदृढ़ की व दक्षिण के बड़े भूभाग को
जीत लिया, उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि हर्षवर्धन के विरूद्ध रक्षात्मक युद्ध
लड़ना थी।
तथापि 642 इसवी में पल्लव राजा ने पुलकेसन को परास्त कर मार डाला। उसका
पुत्र विक्रमादित्य, जो कि अपने पिता के समान महान शासक था, गद्दी पर
बैठा। उसने दक्षिण के अपने शत्रुओं के विरूद्ध पुन: संघर्ष प्रारंभ किया।
उसने चालुक्यों के पुराने वैभव को काफी हद तक पुन: प्राप्त किया। यहां तक
कि उसका परपोता विक्रमादित्य द्वितीय भी महान योद्धा था। 753 इसवी में
विक्रमादित्य व उसके पुत्र का दंती दुर्गा नाम के एक सरदार ने तख्ता पलट
दिया। उसने महाराष्ट्र व कर्नाटक में एक और महान साम्राज्य की स्थापना
की जो राष्ट्र कूट कहलाया।
कांची के पल्लव
छठवीं सदी की अंतिम चौथाई में पल्लव राजा सिंहविष्णु शक्तिशाली हुआ तथा
कृष्णा व कावेरी नदियों के बीच के क्षेत्र को जीत लिया। उसका पुत्र व
उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन प्रतिभाशाली व्यक्ति था, जो दुर्भाग्य से
चालुक्य राजा पुलकेसन द्वितीय के हाथों परास्त होकर अपने राज्य के
उत्तरी भाग को खो बैठा। परन्तु उसके पुत्र नरसिंह वर्मन प्रथम ने
चालुक्य शक्ति का दमन किया। पल्लव राज्य नरसिंह वर्मन द्वितीय के
शासनकाल में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचा। वह अपनी स्थापत्य कला की
उपलब्धियों के लिए प्रसिद्ध था, उसने बहुत से मन्दिरों का निर्माण करवाया
तथा उसके समय में कला व साहित्य फला-फूला। संस्कृत का महान विद्वान
दानदिन उस के राजदरबार में था। तथापि उसकी मृत्यु के बाद पल्लव
साम्राज्य की अवनति होती गई। समय के साथ-साथ यह मात्र स्थानीय कबीले की
शक्ति के रूप में रह गया। आखिरकार चोल राजा ने 9वीं इसवी. के समापन के
आस-पास पल्लव राजा अपराजित को परास्त कर उसका साम्राज्य हथिया लिया।
भारत के प्राचीन इतिहास ने, कई साम्राज्यों, जिन्होंने अपनी ऐसी बपौती
पीछे छोड़ी है, जो भारत के स्वर्णिम इतिहास में अभी भी गूंज रही है, का
उत्थान व पतन देखा है। 9वीं इसवी. के समाप्त होते-होते भारत का
मध्यकालीन इतिहास पाला, सेना, प्रतिहार और राष्ट्र कूट आदि - आदि उत्थान
से प्रारंभ होता है।
भारत का मध्यकालीन इतिहास
आने वाला समय जो इस्लामिक प्रभाव और भारत पर शासन के साथ सशक्त रूप से
संबंध रखता है, मध्य कालीन भारतीय इतिहास तथाकथित स्वदेशी शासकों के अधीन
लगभग तीन शताब्दियों तक चलता रहा, जिसमें चालुक्य, पल्व, पाण्डया,
राष्ट्रकूट शामिल हैं, मुस्लिम शासक और अंतत: मुगल साम्राज्य। नौवी
शताब्दी के मध्य में उभरने वाला सबसे महत्वपूर्ण राजवंश चोल राजवंश था।
पाल
आठवीं और दसवीं शताब्दी ए.डी. के बीच अनेक शक्तिशाली शासकों ने भारत के
पूर्वी और उत्तरी भागों पर प्रभुत्व बनाए रखा। पाल राजा धर्मपाल, जो गोपाल
के पुत्र थे, में आठवीं शताब्दी ए.डी. से नौवी शताब्दी ए.डी. के अंत तक
शासन किया। धर्मपाल द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय और विक्रमशिला
विश्वविद्यालय की स्थापना इसी अवधि में की गई।
सेन
पाल वंश के पतन के बाद सेन राजवंश ने बंगाल में शासन स्थापित किया। इस
राजवंश के स्थापक सामंत सेन थे। इस राजवंश के महानतम शासक विजय सेन थे।
उन्होंने पूरे बंगाल पर कब्जा किया और उनके बाद उनके पुत्र बल्लाल सेन
ने राज किया। उनका शासन शांतिपूर्ण रहा किन्तु इसने अपने विचारधाराओं को
समूचा बनाए रखा। वे एक महान विद्वान थे तथा उन्होंने ज्योतिष विज्ञान पर
एक पुस्तक सहित चार पुस्तके लिखी। इस राजवंश के अंतिम शासक लक्ष्मण सेन
थे, जिनके कार्यकाल में मुस्लिमों ने बंगाल पर शासन किया और फिर साम्राज्य
समाप्त हो गया।
प्रतिहार
प्रतिहार राजवंश के महानतम शासक मिहिर भोज थे। उन्होंने 836 में कन्नौज
(कान्यकुब्ज) की खोज की और लगभग एक शताब्दी तक प्रतिहारों की राजधानी
बनाया। उन्होंने भोजपाल (वर्तमान भोपाल) शहर का निर्माण किया। राजा भोज और
उनके अन्य सहवर्ती गुजर राजाओं को पश्चिम की ओर से अरब जनों के अनेक
आक्रमणों का सामना करना पड़ा और पराजित होना पड़ा।
वर्ष 915 - 918 ए.डी. के बीच कन्नौज पर राष्ट्रकूट राजा ने आक्रमण किया।
जिसने शहर को विरान बना दिया और प्रतिहार साम्राज्य की जड़ें कमजोर दी।
वर्ष 1018 में कन्नौज ने राज्यपाल प्रतिहार का शासन देखा, जिसे गजनी के
महमूद ने लूटा। पूरा साम्राज्य स्वतंत्रता राजपूत राज्यों में टूट गया।
राष्ट्रकूट
इस राजवंश ने कर्नाटक पर राज्य किया और यह कई कारणों से उल्लेखनीय है।
उन्होंने किसी अन्य राजवंश की तुलना में एक बड़े हिस्से पर राज किया। वे
कला और साहित्व के महान संरक्षक थे। अनेक राष्टकूट राजाओं द्वारा शिक्षा
और साहित्य को दिया गया प्रोत्साहन अनोखा है और उनके द्वारा धार्मिक
सहनशीलता का उदाहरण अनुकरणीय है।
दक्षिण का चोल राजवंश
यह भारतीय महाद्वीप के एक बड़े हिस्से को शामिल करते हुए नौवीं शताब्दी
ए.डी. के मध्य में उभरा साथ ही यह श्रीलंका तथा मालदीव में भी फैला था।
इस राजवंश से उभरने वाला प्रथम महत्वपूर्ण शासक राजराजा चोल 1 और उनके
पुत्र तथा उत्तरवर्ती राजेन्द्र चोल थे। राजराजा ने अपने पिता की जोड़ने
की नीति को आगे बढ़ाया। उसने बंगाल, उड़ीसा और मध्य प्रदेश के दूरदराज के
इलाकों पर सशस्त्र चढ़ाई की।
राजेन्द्र I, राजाधिराज और राजेन्द्र II के उत्तरवर्ती निडर शासक थे जो
चालुक्य राजाओं से आगे चलकर वीरतापूर्वक लड़े किन्तु चोल राजवंश के पतन
को रोक नहीं पाए। आगे चलकर चोल राजा कमजोर और अक्षम शासक सिद्ध हुए। इस
प्रकार चोल साम्राज्य आगे लगभग डेढ़ शताब्दी तक आगे चला और अंतत: चौदहवीं
शताब्दी ए.डी. की शुरूआत में मलिक कफूर के आक्रमण पर समाप्त हो गया।
भारत का मध्यकालीन इतिहास
दक्षिण एशिया में इस्लाम का उदय
पैगम्बर मुहम्मद की मृत्यु के बाद प्रथम शताब्दी में दक्षिण एशिया के
अंदर इस्लाम का आरंभिक प्रवेश हुआ। उमायद खलीफा ने डमस्कस में
बलूचिस्तान और सिंध पर 711 में मुहम्मद बिन कासिन के नेतृत्व में चढ़ाई
की। उन्होंने सिंध और मुलतान पर कब्जा कर लिया। उनकी मौत के 300 साल बाद
सुल्तान मेहमूद गजनी, जो एक खूंख्वार नेता थे, ने राजपूत राजशाहियों के
विरुद्ध तथा धनवान हिन्दू मंदिरों पर छापामारी की एक श्रृंखला आरंभ की तथा
भावी चढ़ाइयों के लिए पंजाब में अपना एक आधार स्थापित किया। वर्ष 1024
में सुल्तान ने अरब सागर के साथ काठियावाड़ के दक्षिणी तट पर अपना अंतिम
प्रसिद्ध खोज का दौर शुरु किया, जहां उसने सोमनाथ शहर पर हमला किया और साथ
ही अनेक प्रतिष्ठित हिंदू मंदिरों पर आक्रमण किया।
भारत में मुस्लिम आक्रमण
मोहम्मद गोरी ने मुल्तान और पंजाब पर विजय पाने के बाद 1175 ए.डी. में
भारत पर आक्रमण किया, वह दिल्ली की ओर आगे बढ़ा। उत्तरी भारत के बहादुर
राजपूत राजाओं ने पृथ्वी राज चौहान के नेतृत्व में 1191 ए.डी. में तराइन
के प्रथम युद्ध में पराजित किया। एक साल चले युद्ध के पश्चात मोहम्मद
गोरी अपनी पराजय का बदला लेने दोबारा आया। वर्ष 1192 ए.डी. के दौरान तराइन
में एक अत्यंत भयानक युद्ध लड़ा गया, जिसमें राजपूत पराजित हुए और पृथ्वी
राज चौहान को पकड़ कर मौत के घाट उतार दिया गया। तराइन का दूसरा युद्ध एक
निर्णायक युद्ध सिद्ध हुआ और इसमें उत्तरी भारत में मुस्लिम शासन की
आधारशिला रखी।
दिल्ली की सल्तनत
भारत के इतिहास में 1206 ए.डी. और 1526 ए.डी. के बीच की अवधि दिल्ली का
सल्तनत कार्यकाल कही जाती है। इस अवधि के दौरान 300 वर्षों से अधिक समय
में दिल्ली पर पांच राजवंशों ने शासन किया। ये थे गुलाम राजवंश (1206-90),
खिलजी राजवंश (1290-1320), तुगलक राजवंश (1320-1413), सायीद राजवंश
(1414-51), और लोदी राजवंश (1451-1526)।
गुलाम राजवंश
इस्लाम में समानता की संकल्पना और मुस्लिम परम्पराएं दक्षिण एशिया के
इतिहास में अपने चरम बिन्दु पर पहुंच गई, जब गुलामों ने सुल्तान का दर्जा
हासिल किया। गुलाम राजवंश ने लगभग 84 वर्षों तक इस उप महाद्वीप पर शासन
किया। यह प्रथम मुस्लिम राजवंश था जिसने भारत पर शासन किया। मोहम्मद गोरी
का एक गुलाम कुतुब उद दीन ऐबक अपने मालिक की मृत्यु के बाद शासक बना और
गुलाम राजवंश की स्थापना की। वह एक महान निर्माता था जिसने दिल्ली में
कुतुब मीनार के नाम से विख्यात आश्चर्यजनक 238 फीट ऊंचे पत्थर के स्तंभ
का निर्माण कराया।
गुलाम राजवंश का अगला महत्वपूर्ण राजा शम्स उद दीन इलतुतमश था, जो कुतुब
उद दीन ऐबक का गुलाम था। इलतुतमश ने 1211 से 1236 के बीच लगभग 26 वर्ष तक
राज किया और वह मजबूत आधार पर दिल्ली की सल्तनत स्थापित करने के लिए
उत्तरदायी था। इलतुतमश की सक्षम बेटी, रजिया बेगम अपनी और अंतिम मुस्लिम
महिला थी जिसने दिल्ली के तख्त पर राज किया। वह बहादुरी से लड़ी किन्तु
अंत में पराजित होने पर उसे मार डाला गया।
अंत में इलतुतमश के सबसे छोटे बेटे नसीर उद दीन मेहमूद को 1245 में
सुल्तान बनाया गया। जबकि मेहमूद ने लगभग 20 वर्ष तक भारत पर शासन किया।
किन्तु अपने पूरे कार्यकाल में उसकी मुख्य शक्ति उसके प्रधानमंत्री बलबन
के हाथों में रही। मेहमूद की मौत होने पर बलबन ने सिंहासन पर कब्ज़ा किया
और दिल्ली पर राज किया। वर्ष 1266 से 1287 तक बलबन ने अपने कार्यकाल में
साम्राज्य का प्रशासनिक ढांचा सुगठित किया तथा इलतुतमश द्वारा शुरू किए गए
कार्यों को पूरा किया।
खिलजी राजवंश
बलवन की मौत के बाद सल्तनत कमजोर हो गई और यहां कई बगावतें हुईं। यही वह
समय था जब राजाओं ने जलाल उद दीन खिलजी को राजगद्दी पर बिठाया। इससे खिलजी
राजवंश की स्थापना आरंभ हुई। इस राजवंश का राजकाज 1290 ए.डी. में शुरू
हुआ। अला उद दीन खिलजी जो जलाल उद दीन खिलजी का भतीजा था, ने षड़यंत्र किया
और सुल्तान जलाल उद दीन को मार कर 1296 में स्वयं सुल्तान बन बैठा। अला
उद दीन खिलजी प्रथम मुस्लिम शासक था जिसके राज्य ने पूरे भारत का लगभग
सारा हिस्सा दक्षिण के सिरे तक शामिल था। उसने कई लड़ाइयां लड़ी, गुजरात,
रणथम्भौर, चित्तौड़, मलवा और दक्षिण पर विजय पाई। उसके 20 वर्ष के शासन
काल में कई बार मंगोलों ने देश पर आक्रमण किया किन्तु उन्हें सफलतापूर्वक
पीछे खदेड़ दिया गया। इन आक्रमणों से अला उद दीन खिलजी ने स्वयं को तैयार
रखने का सबक लिया और अपनी सशस्त्र सेनाओं को संपुष्ट तथा संगठित किया।
वर्ष 1316 ए.डी. में अला उद दीन की मौत हो गई और उसकी मौत के साथ खिलजी
राजवंश समाप्त हो गया।
तुगलक राजवंश
गयासुद्दीन तुगलक, जो अला उद दीन खिलजी के कार्यकाल में पंजाब का राज्यपाल
था, 1320 ए.डी. में सिंहासन पर बैठा और तुगलक राजवंश की स्थापना की। उसने
वारंगल पर विजय पाई और बंगाल में बगावत की। मुहम्मद बिन तुगलक ने अपने
पिता का स्थान लिया और अपने राज्य को भारत से आगे मध्य एशिया तक आगे
बढ़ाया। मंगोल ने तुगलक के शासन काल में भारत पर आक्रमण किया और उन्हें भी
इस बार हराया गया।
मुहम्मद बिन तुगलक ने अपनी राजधानी को दक्षिण में सबसे पहले दिल्ली से
हटाकर देवगिरी में स्थापित किया। जबकि इसे दो वर्ष में वापस लाया गया।
उसने एक बड़े साम्राज्य को विरासत में पाया था किन्तु वह कई प्रांतों को
अपने नियंत्रण में नहीं रख सका, विशेष रूप से दक्षिण और बंगाल को। उसकी मौत
1351 ए.डी. में हुई और उसके चचेरे भाई फिरोज़ तुगलक ने उसका स्थान लिया।
फिरोज तुगलक ने साम्राज्य की सीमाएं आगे बढ़ाने में बहुत अधिक योगदान नहीं
दिया, जो उसे विरासत में मिली थी। उसने अपनी शक्ति का अधिकांश भाग लोगों
के जीवन को बेहतर बनाने में लगाया। वर्ष 1338 ने उसकी मौत के बाद तुगलक
राजवंश लगभग समाप्त हो गया। यद्यपि तुगलक शासन 1412 तक चलता रहा फिर भी
1398 में तैमूर द्वारा दिल्ली पर आक्रमण को तुगलक साम्राज्य का अंत कहा
जा सकता है।
तैमूर का आक्रमण
तुगलक राजवंश के अंतिम राजा के कार्याकाल के दौरान शक्तिशाली राजा तैमूर या
टेमरलेन ने 1398 ए.डी. में भारत पर आक्रमण किया। उसने सिंधु नदी को पार
किया और मुल्तान पर कब्ज़ा किया तथा बहुत अधिक प्रतिरोध का सामना न करते
हुए दिल्ली तक चला आया।
सायीद राजवंश
इसके बाद खिज़ार खान द्वारा सायीद राजवंश की स्थापना की गई। सायीद ने लगभग
1414 ए.डी. से 1450 ए.डी. तक शासन किया। खिज़ार खान ने लगभग 37 वर्ष तक
राज्य किया। सायीद राजवंश में अंतिम मोहम्मद बिन फरीद थे। उनके कार्यकाल
में भ्रम और बगावत की स्थिति बनी हुई। यह साम्राज्य उनकी मृत्यु के बाद
1451 ए.डी. में समाप्त हो गया।
लोदी राजवंश
बुहलुल खान लोदी (1451-1489 ए. डी.)
वे लोदी राजवंश के प्रथम राजा और संस्थापक थे। दिल्ली की सलतनत को उनकी
पुरानी भव्यता में वापस लाने के लिए विचार से उन्होंने जौनपुर के
शक्तिशाली राजवंश के साथ अनेक क्षेत्रों पर विजय पाई। बुहलुल खान ने
ग्वालियर, जौनपुर और उत्तर प्रदेश में अपना क्षेत्र विस्तारित किया।
सिकंदर खान लोदी (1489-1517 ए. डी.)
बुहलुल खान की मृत्यु के बाद उनके दूसरे पुत्र निज़ाम शाह राजा घोषित किए
गए और 1489 में उन्हें सुल्तान सिकंदर शाह का खिताब दिया गया। उन्होंने
अपने राज्य को मजबूत बनाने के सभी प्रयास किए और अपना राज्य पंजाब से
बिहार तक विस्तारित किया। वे बहुत अच्छे प्रशासक और कलाओं तथा लिपि के
संरक्षक थे। उनकी मृत्यु 1517 ए.डी. में हुई।
इब्राहिम खान लोदी (1489-1517 ए. डी.)
सिकंदर की मृत्यु के बाद उनके पुत्र इब्राहिम को गद्दी पर बिठाया गया।
इब्राहिम लोदी एक सक्षम शासक सिद्ध नहीं हुए। वे राजाओं के साथ अधिक से
अधिक सख्त होते गए। वे उनका अपमान करते थे और इस प्रकार इन अपमानों का
बदला लेने के लिए दौलतखान लोदी, लाहौर के राज्यपाल और सुल्तान इब्राहिम
लोदी के एक चाचा, अलाम खान ने काबुल के शासक, बाबर को भारत पर कब्ज़ा करने
का आमंत्रण दिया। इब्राहिम लोदी को बाबर की सेना ने 1526 ए. डी. में
पानीपत के युद्ध में मार गिराया। इस प्रकार दिल्ली की सल्तनत अंतत:
समाप्त हो गई और भारत में मुगल शासन का मार्ग प्रशस्त हुआ।
विजयनगर साम्राज्य
जब मुहम्मद तुगलक दक्षिण में अपनी शक्ति खो रहा
था तब दो हिन्दु राजकुमार हरिहर और बूक्का ने कृष्णा और तुंगभद्रा
नदियों के बीच 1336 में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। जल्दी ही
उन्होंने उत्तर दिशा में कृष्णा नदी तथा दक्षिण में कावेरी नदी के बीच इस
पूरे क्षेत्र पर अपना राज्य स्थापित कर लिया। विजयनगर साम्राज्य की
बढ़ती ताकत से इन कई शक्तियों के बीच टकराव हुआ और उन्होंने बहमनी
साम्राज्य के साथ बार बार लड़ाइयां लड़ी।
विजयनगर साम्राज्य के सबसे प्रसिद्ध राजा कृष्ण देव राय थे। विजयनगर का
राजवंश उनके कार्यकाल में भव्यता के शिखर पर पहुंच गया। वे उन सभी
लड़ाइयों में सफल रहे जो उन्होंने लड़ी। उन्होंने उड़ीसा के राजा को
पराजित किया और विजयवाड़ा तथा राज महेन्द्री को जोड़ा।
कृष्ण देव राय ने पश्चिमी देशों के साथ व्यापार को प्रोत्साहन दिया।
उनके पुर्तगालियों के साथ अच्छे संबंध थे, जिनका व्यापार उन दिनों भारत
के पश्चिमी तट पर व्यापारिक केन्द्रों के रूप में स्थापित हो चुका था।
वे न केवल एक महान योद्धा थे बल्कि वे कला के पारखी और अधिगम्यता के महान
संरक्षक रहे। उनके कार्यकाल में तेलगु साहित्य काफी फला फुला। उनके तथा
उनके उत्तरवर्तियों द्वारा चित्रकला, शिल्पकला, नृत्य और संगीत को काफी
बढ़ावा दिया गया। उन्होंने अपने व्यक्तिगत आकर्षण, दयालुता और आदर्श
प्रशासन द्वारा लोगों को प्रश्रय दिया।
विजयनगर साम्राज्य का पतन 1529 में कृष्ण देव राय की मृत्यु के साथ शुरू
हुआ। यह साम्राज्य 1565 में पूरी तरह समाप्त हो गया जब आदिलशाही,
निजामशाही, कुतुब शाही और बरीद शाही के संयुक्त प्रयासों द्वारा तालीकोटा
में रामराय को पराजित किया गया। इसके बाद यह साम्राज्य छोटे छोटे राज्यों
में टूट गया।
बहमनी राज्य
बहमनी का मुस्लिम राज्य दक्षिण के महान व्यक्तियों
द्वारा स्थापित किया गया, जिन्होंने सुल्तान मुहम्मद तुगलक की दमनकारी
नीतियों के विरुद्ध बकावत की। वर्ष 1347 में हसन अब्दुल मुजफ्फर अल उद्दीन
बहमन शाह के नाम से राजा बना और उसने बहमनी राजवंश की स्थापना की। यह
राजवंश लगभग 175 वर्ष तक चला और इसमें 18 शासक हुए। अपनी भव्यता की ऊंचाई
पर बहमनी राज्य उत्तर में कृष्णा सें लेकर नर्मदा तक विस्तारित हुआ और
बंगाल की खाड़ी के तट से लेकर पूर्व - पश्चिम दिशा में अरब सागर तक फैला।
बहमनी के शासक कभी कभार पड़ोसी हिन्दू राज्य विजयनगर से युद्ध करते थे।
बहमनी राज्य के सर्वाधिक विशिष्ट व्यक्तित्व महमूद गवन थे, जो दो दशक से
अधिक समय के लिए अमीर उल अलमारा के प्रधान राज्यमंत्री रहे। उन्होंने कई
लड़ाइयां लड़ी, अनेक राजाओं को पराजित किया तथा कई क्षेत्रों को बहमनी
राज्य में जोड़ा। राज्य के अंदर उन्होंने प्रशासन में सुधार किया,
वित्तीय व्यवस्था को संगठित किया, जनशिक्षा को प्रोत्साहन दिया, राजस्व
प्रणाली में सुधार किया, सेना को अनुशासित किया एवं भ्रष्टाचार को
समाप्त कर दिया। चरित और ईमानदारी के धनी उन्होंने अपनी उच्च प्रतिष्ठा
को विशिष्ट व्यक्तियों के दक्षिणी समूह से ऊंचा बनाए रखा, विशेष रूप से
निज़ाम उल मुल, और उनकी प्रणाली से उनका निष्पादन हुआ। इसके साथ बहमनी
साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया जो उसके अंतिम राजा कली मुल्लाह की मृत्यु
से 1527 में समाप्त हो गया। इसके साथ बहमनी साम्राज्य पांच क्षेत्रीय
स्वतंत्र भागों में टूट गया - अहमद नगर, बीजापुर, बरार, बिदार और
गोलकोंडा।
भक्ति आंदोलन
मध्यकालीन भारत का सांस्कृतिक इतिहास में एक
महत्वपूर्ण पड़ाव था सामाजिक - धार्मिक सुधारकों की धारा द्वारा समाज में
लाई गई मौन क्रांति, एक ऐसी क्रांति जिसे भक्ति अभियान के नाम से जाना जाता
है। यह अभियान हिन्दुओं, मुस्लिमों और सिक्खों द्वारा भारतीय उप
महाद्वीप में भगवान की पूजा के साथ जुड़े रीति रिवाजों के लिए उत्तरदायी
था। उदाहरण के लिए, हिन्दू मंदिरों में कीर्तन, दरगाह में कव्वाली
(मुस्लिमों द्वारा) और गुरुद्वारे में गुरबानी का गायन, ये सभी मध्यकालीन
इतिहास में (800 - 1700) भारतीय भक्ति आंदोलन से उत्पन्न हुए हैं। इस
हिन्दू क्रांतिकारी अभियान के नेता थे शंकराचार्य, जो एक महान विचारक और
जाने माने दार्शनिक रहे। इस अभियान को चैतन्य महाप्रभु, नामदेव, तुकाराम,
जयदेव ने और अधिक मुखरता प्रदान की। इस अभियान की प्रमुख उपलब्धि मूर्ति
पूजा को समाप्त करना रहा।
भक्ति आंदोलन के नेता रामानंद ने राम को भगवान के रूप में लेकर इसे
केन्द्रित किया। उनके बारे में बहुत कम जानकारी है, परन्तु ऐसा माना जाता
है कि वे 15वीं शताब्दी के प्रथमार्ध में रहे। उन्होंने सिखाया कि भगवान
राम सर्वोच्च भगवान हैं और केवल उनके प्रति प्रेम और समर्पण के माध्यम से
तथा उनके पवित्र नाम को बार - बार उच्चारित करने से ही मुक्ति पाई जाती
है।
चैतन्य महाप्रमु एक पवित्र हिन्दू भिक्षु और सामाजिक सुधार थे तथा वे
सोलहवीं शताब्दी के दौरान बंगाल में हुए। भगवान के प्रति प्रेम भाव रखने
के प्रबल समर्थक, भक्ति योग के प्रवर्तक, चैतन्य ने ईश्वर की आराधना
श्रीकृष्ण के रूप में की।
श्री रामनुज आचार्य भारतीय दर्शनशास्त्री थे और उन्हें सर्वाधिक
महत्वपूर्ण वैष्णव संत के रूप में मान्यता दी गई है। रामानंद ने उत्तर
भारत में जो किया वही रामानुज ने दक्षिण भारत में किया। उन्होंने रुढिवादी
कुविचार की बढ़ती औपचारिकता के विरुद्ध आवाज उठाई और प्रेम तथा समर्पण की
नींव पर आधारित वैष्णव विचाराधारा के नए सम्प्रदायक की स्थापना की। उनका
सर्वाधिक असाधारण योगदान अपने मानने वालों के बीच जाति के भेदभाव को
समाप् करना।
बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में भक्ति आंदोलन के अनुयायियों में भगत
नामदेव और संत कबीर दास शामिल हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से
भगवान की स्तुति के भक्ति गीतों पर बल दिया।
प्रथम सिक्ख गुरु, और सिक्ख धर्म के प्रवर्तक, गुरु नामक जी भी निर्गुण
भक्ति संत थे और समाज सुधारक थे। उन्होंने सभी प्रकार के जाति भेद और
धार्मिक शत्रुता तथा रीति रिवाजों का विरोध किया। उन्होंने ईश्वर के एक
रूप माना तथा हिन्दू और मुस्लिम धर्म की औपचारिकताओं तथा रीति रिवाजों की
आलोचना की। गुरु नामक का सिद्धांत सभी लोगों के लिए था। उन्होंने हर
प्रकार से समानता का समर्थन किया।
सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में भी अनेक धार्मिक सुधारकों का उत्थान
हुआ। वैष्णव सम्प्रदाय के राम के अनुयायी तथा कृष्ण के अनुयायी अनेक
छोटे वर्गों और पंथों में बंट गए। राम के अनुयायियों में प्रमुख संत कवि
तुलसीदास थे। वे अत्यंत विद्वान थे और उन्होंने भारतीय दर्शन तथा
साहित्य का गहरा अध्ययन किया। उनकी महान कृति 'राम चरित मानस' जिसे जन
साधारण द्वारा तुलसीकृत रामायण कहा जाता है, हिन्दू श्रृद्धालुओं के बीच
अत्यंत लोकप्रिय है। उन्होंने लोगों के बीच श्री राम की छवि सर्वव्यापी,
सर्व शक्तिमान, दुनिया के स्वामी और परब्रह्म के साकार रूप से बनाई।
कृष्ण के अनुयायियों ने 1585 ए. डी में हरिवंश के अंतर्गत राधा बल्लभी
पंथ की स्थापना की। सूर दास ने ब्रज भाषा में ''सूर सरागर'' की रचना की,
जो श्री कृष्ण के मोहक रूप तथा उनकी प्रेमिका राधा की कथाओं से परिपूर्ण
है।
सूफीवाद
पद सूफी, वली, दरवेश और फकीर का उपयोग मुस्लिम संतों के लिए
किया जाता है, जिन्होंने अपनी पूर्वाभासी शक्तियों के विकास हेतु वैराग्य
अपनाकर, सम्पूर्णता की ओर जाकर, त्याग और आत्म अस्वीकार के माध्यम से
प्रयास किया। बारहवीं शताब्दी ए.डी. तक, सूफीवाद इस्लामी सामाजिक जीवन
के एक सार्वभौमिक पक्ष का प्रतीक बन गया, क्योंकि यह पूरे इस्लामिक
समुदाय में अपना प्रभाव विस्तारित कर चुका था।
सूफीवाद इस्लाम धर्म के अंदरुनी या गूढ़ पक्ष को या मुस्लिम धर्म के
रहस्यमयी आयाम का प्रतिनिधित्व करता है। जबकि, सूफी संतों ने सभी धार्मिक
और सामुदायिक भेदभावों से आगे बढ़कर विशाल पर मानवता के हित को
प्रोत्साहन देने के लिए कार्य किया। सूफी सन्त दार्शनिकों का एक ऐसा वर्ग
था जो अपनी धार्मिक विचारधारा के लिए उल्लेखनीय रहा। सूफियों ने ईश्वर
को सर्वोच्च सुंदर माना है और ऐसा माना जाता है कि सभी को इसकी प्रशंसा
करनी चाहिए, उसकी याद में खुशी महसूस करनी चाहिए और केवल उसी पर ध्यान
केन्द्रित करना चाहिए। उन्होंने विश्वास किया कि ईश्वर ''माशूक'' और
सूफी ''आशिक'' हैं।
सूफीवाद ने स्वयं को विभिन्न 'सिलसिलों' या क्रमों में बांटा। सर्वाधिक
चार लोकप्रिय वर्ग हैं चिश्ती, सुहारावार्डिस, कादिरियाह और नक्शबंदी।
सूफीवाद ने शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में जडें जमा लीं और जन समूह पर गहरा
सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक प्रभाव डाला। इसने हर प्रकार के धार्मिक
औपचारिक वाद, रुढिवादिता, आडंबर और पाखंड के विरुद्ध आवाज़ उठाई तथा एक
ऐसे वैश्विक वर्ग के स़ृजन का प्रयास किया जहां आध्यात्मिक पवित्रता ही
एकमात्र और अंतिम लक्ष्य है। एक ऐसे समय जब राजनैतिक शक्ति का संघर्ष
पागलपन के रूप में प्रचलित था, सूफी संतों ने लोगों को नैतिक बाध्यता का
पाठ पढ़ाया। संघर्ष और तनाव से टूटी दुनिया के लिए उन्होंने शांति और
सौहार्द लाने का प्रयास किया। सूफीवाद का सबसे महत्वपूर्ण योगदान यह है कि
उन्होंने अपनी प्रेम की भावना को विकसित कर हिन्दू - मुस्लिम
पूर्वाग्रहों के भेद मिटाने में सहायता दी और इन दोनों धार्मिक समुदायों के
बीच भाईचारे की भावना उपत्न्न की।
मुगल राजवंश
भारत में मुगल राजवंश महानतम शासकों में से एक था। मुगल
शासकों ने हज़ारों लाखों लोगों पर शासन किया। भारत एक नियम के तहत एकत्र हो
गया और यहां विभिन्न प्रकार की सांस्कृतिक और राजनैतिक समय अवधि मुगल
शासन के दौरान देखी गई। पूरे भारत में अनेक मुस्लिम और हिन्दु राजवंश
टूटे, और उसके बाद मुगल राजवंश के संस्थापक यहां आए। कुछ ऐसे लोग हुए हैं
जैसे कि बाबर, जो महान एशियाई विजेता तैमूर लंग का पोता था और गंगा नदी की
घाटी के उत्तरी क्षेत्र से आए विजेता चंगेज़खान, जिसने खैबर पर कब्जा करने
का निर्णय लिया और अंतत: पूरे भारत पर कब्ज़ा कर लिया।
बाबर (1526-1530): यह तैमूर लंग और चंगेज़खान का प्रपौत्र था जो भारत में
प्रथम मुगल शासक थे। उसने पानीपत के प्रथम युद्ध में 1526 के दौरान लोधी
वंश के साथ संघर्ष कर उन्हें पराजित किया और इस प्रकार अंत में मुगल
राजवंश की स्थापना हुई। बाबर ने 1530 तक शासन किया और उसके बाद उसका बेटा
हुमायूं गद्दी पर बैठा।
हुमायूं (1530-1540 और 1555-1556): बाबर का सबसे बड़ा था जिसने अपने पिता
के बाद राज्य संभाला और मुगल राजवंश का द्वितीय शासक बना। उसने लगभग 1 दशक
तक भारत पर शासन किया किन्तु फिर उसे अफगानी शासक शेर शाह सूरी ने पराजित
किया। हुमायूं अपनी पराजय के बाद लगभग 15 वर्ष तक भटकता रहा। इस बीच शेर
शाह मौत हो गई और हुमायूं उसके उत्तरवर्ती सिकंदर सूरी को पराजित करने में
सक्षम रहा तथा दोबारा हिन्दुस्तान का राज्य प्राप्त कर सका। जबकि इसके
कुछ ही समय बाद केवल 48 वर्ष की उम्र में 1556 में उसकी मौत हो गई।
शेर शाह सूरी (1540-1545): एक अफगान नेता था जिसने 1540 में हुमायूं को
पराजित कर मुगल शासन पर विजय पाई। शेर शाह ने अधिक से अधिक 5 वर्ष तक
दिल्ली के तख्त पर राज किया और वह इस उप महाद्वीप में अपने अधिकार
क्षेत्र को स्थापित नहीं कर सका। एक राजा के तौर पर उसके खाते में अनेक
उपलब्धियों का श्रेय जाता है। उसने एक दक्ष लोक प्रशासन की स्थापना की।
उसने भूमि के माप के आधार पर राजस्व संग्रह की एक प्रणाली स्थापित की।
उसके राज्य में आम आदमी को न्याय मिला। अनेक लोक कार्य उसके अल्प अवधि
के शासन कार्य में कराए गए जैसे कि पेड़ लगाना, यात्रियों के लिए कुएं और
सरायों का निर्माण कराया गया, सड़कें बनाई गई, उसी के शासन काल में दिल्ली
से काबुल तक ग्रांड ट्रंक रोड बनाई गई। मुद्रा को बदल कर छोटी रकम के
चांदी के सिक्के बनवाए गए, जिन्हें दाम कहते थे। यद्यपि शेर शाह तख्त पर
बैठने के बाद अधिक समय जीवित नहीं रहा और 5 वर्ष के शासन काल बाद 1545 में
उसकी मौत हो गई।
अकबर (1556-1605): हुमायूं के उत्तराधिकारी, अकबर का जन्म निर्वासन के
दौरान हुआ था और वह केवल 13 वर्ष का था जब उसके पिता की मौत हो गई। अकबर को
इतिहास में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है। वह एक मात्र ऐसा शासक था
जिसमें मुगल साम्राज्य की नींव का संपुष्ट बनाया। लगातार विजय पाने के
बाद उसने भारत के अधिकांश भाग को अपने अधीन कर लिया। जो हिस्से उसके शासन
में शामिल नहीं थे उन्हें सहायक भाग घोषित किया गया। उसने राजपूतों के
प्रति भी उदारवादी नीति अपनाई और इस प्रकार उनसे खतरे को कम किया। अकबर न
केवल एक महान विजेता था बल्कि वह एक सक्षम संगठनकर्ता एवं एक महान प्रशासक
भी था। उसने ऐसा संस्थानों की स्थापना की जो एक प्रशासनिक प्रणाली की
नींव सिद्ध हुए, जिन्हें ब्रिटिश कालीन भारत में भी प्रचालित किया गया था।
अकबर के शासन काल में गैर मुस्लिमों के प्रति उसकी उदारवादी नीतियों, उसके
धार्मिक नवाचार, भूमि राजस्व प्रणाली और उसकी प्रसिद्ध मनसबदारी प्रथा के
कारण उसकी स्थिति भिन्न है। अकबर की मनसबदारी प्रथा मुगल सैन्य संगठन और
नागरिक प्रशासन का आधार बनी।
अकबर की मृत्यु उसके तख्त पर आरोहण के लगभग 50 साल बाद 1605 में हुई और
उसे सिकंदरा में आगरा के बाहर दफनाया गया। तब उसके बेटे जहांगीर ने तख्त
को संभाला।
जहांगीर:
अकबर के स्थान पर उसके बेटे सलीम ने तख्तोताज़ को
संभाला, जिसने जहांगीर की उपाधि पाई, जिसका अर्थ होता है दुनिया का विजेता।
उसने मेहर उन निसा से निकाह किया, जिसे उसने नूरजहां (दुनिया की रोशनी) का
खिताब दिया। वह उसे बेताहाशा प्रेम करता था और उसने प्रशासन की पूरी
बागडोर नूरजहां को सौंप दी। उसने कांगड़ा और किश्वर के अतिरिक्त अपने
राज्य का विस्तार किया तथा मुगल साम्राज्य में बंगाल को भी शामिल कर
दिया। जहांगीर के अंदर अपने पिता अकबर जैसी राजनैतिक उद्यमशीलता की कमी थी।
किन्तु वह एक ईमानदार और सहनशील शासक था। उसने समाज में सुधार करने का
प्रयास किया और वह हिन्दुओं, ईसाइयों तथा ज्यूस के प्रति उदार था। जबकि
सिक्खों के साथ उसके संबंध तनावपूर्ण थे और दस सिक्ख गुरूओं में से
पांचवें गुरू अर्जुन देव को जहांगीर के आदेश पर मौत के घाट उतार दिया गया
था, जिन पर जहांगीर के बगावती बेटे खुसरू की सहायता करने का अरोप था।
जहांगीर के शासन काल में कला, साहित्य और वास्तुकला फली फूली और श्री नगर
में बनाया गया मुगल गार्डन उसकी कलात्मक अभिरुचि का एक स्थायी प्रमाण
है। उसकी मृत्यु 1627 में हुई।
शाहजहां:
जहांगीर के बाद उसके द्वितीय पुत्र खुर्रम ने 1628 में
तख्त संभाला। खुर्रम ने शाहजहां का नाम ग्रह किया जिसका अर्थ होता है
दुनिया का राजा। उसने उत्तर दिशा में कंधार तक अपना राज्य विस्तारित किया
और दक्षिण भारत का अधिकांश हिस्सा जीत लिया। मुगल शासन शाहजहां के
कार्यकाल में अपने सर्वोच्च बिन्दु पर था। ऐसा अतुलनीय समृद्धि और शांति
के लगभग 100 वर्षों तक हुआ। इसके परिणाम स्वरूप इस अवधि में दुनिया को
मुगल शासन की कलाओं और संस्कृति के अनोखे विकास को देखने का अवसर मिला।
शाहजहां को वास्तुकार राजा कहा जाता है। लाल किला और जामा मस्जिद, दिल्ली
में स्थित ये दोनों इमारतें सिविल अभियांत्रिकी तथा कला की उपलब्धि के रूप
में खड़ी हैं। इन सब के अलावा शाहजहां को आज ताज महल, के लिए याद किया
जाता है, जो उसने आगरा में यमुना नदी के किनारे अपनी प्रिय पत्नी मुमताज
महल के लिए सफेद संगमरमर से बनवाया था।
औरंगज़ेब:
औंरगज़ेब ने 1658 में तख्त संभाला और 1707 तक राज्य
किया। इस प्रकार औरंगज़ेब ने 50 वर्ष तक राज्य किया। जो अकबर के बराबर
लम्बा कार्यकाल था। परन्तु दुर्भाग्य से उसने अपने पांचों बेटों को शाही
दरबार से दूर रखा और इसका नतीजा यह हुआ कि उनमें से किसी को भी सरकार
चलाने की कला का प्रशिक्षण नहीं मिला। इससे मुगलों को आगे चल कर हानि उठानी
पड़ी। अपने 50 वर्ष के शासन काल में औरंगजेब ने इस पूरे उप महाद्वीप को एक
साथ एक शासन लाने की आकांक्षा को पूरा करने का प्रयास किया। यह उसी के
कार्यकाल में हुआ जब मुगल शासन अपने क्षेत्र में सर्वोच्च बिन्दु तक
पहुंचा। उसने वर्षों तक कठिन परिश्रम किया किन्तु अंत में उसका
स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया। उसने 1707 में 90 वर्ष की आयु पर मृत्यु के
समय कोई संपत्ति नहीं छोड़ी। उसकी मौत के साथ विघटनकारी ताकतें उठ खड़ी
हुईं और शक्तिशाली मुगल साम्राज्य का पतन शुरू हो गया।
सिक्ख शक्ति का उदय
सिक्ख धर्म की स्थापना सोलहवीं शताब्दी के
आरंभ में गुरूनानक देव द्वारा की गई थी। गुरू नानक का जन्म 15 अप्रैल 1469
को पश्चिमी पंजाब के एक गांव तलवंडी में हुआ था। एक बालक के रूप में
उन्हें दुनियावी चीज़ों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। तेरह वर्ष की उम्र में
उन्हें ज्ञान प्राप्ति हुई। इसके बाद उन्होंने देश के लगभग सभी भागों
में यात्रा की और मक्का तथा बगदाद भी गए और अपना संदेश सभी को दिया। उनकी
मृत्यु पर उन्हें 9 अन्य गुरूओं ने अपनाया।
गुरू अंगद देव जी (1504-1552) तेरह वर्ष (1539-1552) के लिए गुरू रहे।
उन्होंने गुरूमुखी की नई लिपि का सृजन किया और सिक्खों को एक लिखित भाषा
प्रदान की। उनकी मृत्यु के बाद गुरू अमरदास जी (1479-1574) ने उनका
उत्तराधिकार लिया। उन्होंने अत्यंत समर्पण दर्शाया और सिक्ख धर्म के
अविभाज्य भाग्य के रूप में लंगर किया। गुरू रामदास जी ने चौथे गुरू का पद
संभाला, उन्होंने श्लोक बनाए, जिन्हें आगे चलकर पवित्र लेखनों में
शामिल किया गया। गुरू अर्जन देव जी सिक्ख धर्म के पांचवें गुरू बने।
उन्होंने विश्व प्रसिद्ध हरमंदिर साहिब का निर्माण कराया जो अमृतसर में
स्थित स्वर्ण मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने पवित्र ग्रंथ
साहिब का संकलन किया, जो सिक्ख धर्म की एक पवित्र धार्मिक पुस्तक है।
गुरू अर्जन देव ने 1606 में शरीर छोड़ा और उनके बाद श्री हर गोविंद आए,
जिन्होंने स्थायी सेना बनाए रखी और सांकेतिक रूप से वे दो तलवारें धारण
करते थे, जो आध्यात्मिकता और मानसिक शक्ति की प्रतीक है।
गुरू श्री हर राय सांतवें गुरू थे जिनका जन्म 1630 में हुआ और उन्होंने
अपना अधिकांश जीवन ध्यान और गुरू नानक की बताई गई बातों के प्रचार में
लगाया। उनकी मृत्यु 1661 में हुई और उनके बाद उनके द्वितीय पुत्र हर किशन
ने गुरू का पद संभाला। गुरू श्री हर किशन जी को 1661 में ज्ञान प्राप्ति
हुई। उन्होंने अपना जीवन दिल्ली के माहमारी से पीडित लोगों की सेवा और
सुश्रुसा में लगाया। जिस स्थान पर उन्होंने अपने जीवन की अंतिम सांस ली
उसे दिल्ली में गुरूद्वारा बंगला साहिब कहा जाता है। श्री गुरू तेग बहादुर
1664 में गुरू बने। जब कश्मीर के मुगल राज्यपाल ने हिन्दुओं को बल
पूर्वक धर्म परिवर्तन कराने के लिए दबाव डाला तब गुरू तेग बहादुर ने इसके
प्रति संघर्ष करने का निर्णय लिया। गुरूद्वारा सीसगंज, दिल्ली उसी स्थान
पर है जहां गुरू साहिब ने अंतिम सांसें ली और गुरू द्वारा रकाबगंज में उनका
अंतिम संस्कार किया गया। दसवें गुरू, गुरू गोविंद सिंह का जन्म 1666 में
हुआ और वे अपने पिता गुरू तेग बहादुर की मृत्यु के बाद गुरू बने। गुरू
गोविंद सिंह ने अपनी मृत्यु के समय गुरू ग्रंथ साहिब को सिक्ख धर्म का
उच्चतम प्रमुख कहा और इस प्रकार एक धार्मिक गुरू को मनोनीत करने की लंबी
परम्परा का अंत हुआ।
छत्रपति शिवाजी महाराज
महान मराठा शूरवीर छत्रपति शिवाजी (1630-1680)
ने भारत में तत्कालीन सत्तारूढ़ शक्तिशाली शासक मुगलों से लोहा लेकर दक्कन
(पश्चिमी भारत) में अपने साम्राज्य की स्थापना की। उन्होंने लोगों को
प्रेरित कर मुगल शासक औरंगजेब के खिलाफ संघर्ष में शामिल होने के लिए एकजुट
किया। उन्होंने आमजन के मन को गर्व और राष्ट्रीयता के ज्ञान से भरकर जागृत
करने का प्रयास किया।
शिवाजी ने 18 वर्ष की युवावस्था में ही अपने आत्मविश्वास के बल पर पुणे के
पास कई पहाड़ी किलों को जीता था। उन्होंने सशक्त सेना और नौसेना का निर्माण
कर किलों का जीर्णोद्धार कराया। शिवाजी के संघर्ष अभियान में गुरिल्ला
रणनीति की एक अहम तत्व था।
शिवाजी महाराज ने महाराष्ट्र धर्म प्रचार और एक छोटे साम्राज्य की स्थापना
के लिए मावल, कोंकण और देश के अन्य क्षेत्रों से मराठा प्रमुखों को एकजुट
किया। शिवाजी अपने लोगों के लिए एक प्रेरणादायक नेता के रूप में उभरकर
सामने आए। उन्होंने मराठों के नेतृत्व की जिम्मेदरी भी संभाली। साहसी
शिवाजी ने मराठों और हिन्दुओं को युद्ध की रणनीतियां सिखाईं। जिनका उपयोग
मराठों ने सुल्तानों, प्रायद्वीपों और मुगल शासकों के खिलाफ बखूबी किया।
छत्रपति शिवाजी द्वारा स्थापित इस छोटे साम्राज्य को 'हिन्दवी स्वराज'
(संप्रभू हिन्दू राज्य) के नाम से भी जाना जाता था। उनका यह साम्राज्य
उत्तर-पश्चिम भारत (अब पाकिस्तान में) से लेकर पूर्व भारत में कटक के आगे
तक फैला हुआ था। जो समय के साथ भारत में एक शक्तिशाली साम्राज्य बन गया था।
शिवाजी की मृत्यु 1680 में रायगढ़ में पेचिश की बीमारी से ग्रसित होने से
हुई थी। पचास वर्ष की आयु में हुई शिवाजी की इस असमय मृत्यु (अप्रैल, 1680)
से एक खालीपन आ गया, परंतु भारतीय इतिहास में शिवाजी को याद करते हुए लिखा
गया व मान्यता प्रदान की गई।
मुगल शासन काल का पतन
मुगल शासन काल का विघटन 1707 में औरंगजेब की
मृत्यु के बाद आरंभ हो गया था। उनके पुत्र और उत्तराधिकारी, बहादुर शाह
जफर पहले ही बूढ़े हो गए थे, जब वे सिहांसन पर बैठे और उन्हें एक के बार
एक बगावतों का सामना करना पड़ा। उस समय साम्राज्य के सामने मराठों और
ब्रिटिश की ओर से चुनौतियां मिल रही थी। करो में स्फीति और धार्मिक
असहनशीलता के कारण मुगल शासन की पकड़ कमजोर हो गई थी। मुगल साम्राज्य अनेक
स्वतंत्र या अर्ध स्वतंत्र राज्यों में टूट गया। इरान के नादिरशाह ने
1739 में दिल्ली पर आक्रमण किया और मुगलों की शक्ति की टूटन को जाहिर कर
दिया। यह साम्राज्य तेजी से इस सीमा तक टूट गया कि अब यह केवल दिल्ली के
आस पास का एक छोटा सा जिला रह गया। फिर भी उन्होंने 1850 तक भारत के कम से
कम कुछ हिस्सों में अपना राज्य बनाए रखा, जबकि उन्हें पहले के दिनों के
समान प्रतिष्ठा और प्राधिकार फिर कभी नहीं मिला। राजशाही साम्राज्य
बहादुर शाह द्वितीय के बाद समाप्त हो गया, जो सिपाहियों की बगावत में
सहायता देने के संदेह पर ब्रिटिश राज द्वारा रंगून निर्वासित कर दिए गए थे।
वहां 1862 में उनकी मृत्यु हो गई।
इससे भारतीय इतिहास का मध्य कालीन युग समाप्त हुआ और धीरे धीरे ब्रिटिश
राज ने राष्ट्र पर अपनी पकड़ बढ़ाई और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का
जन्म हुआ।
इतिहास : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (1857-1947)
पुराने समय में जब
पूरी दुनिया के लोग भारत आने के लिए उत्सुक रहा करते थे। यहां आर्य वर्ग
के लोग मध्य यूरोप से आए और भारत में ही बस गए। उनके बाद मुगल आए और वे भी
भारत में स्थायी रूप से बस गए। चंगेज़खान, एक मंगोलियाई था जिसने भारत पर
कई बार आक्रमण किया और लूट पाट की। अलेक्ज़ेडर महान भी भारत पर विजय पाने
के लिए आया किन्तु पोरस के साथ युद्ध में पराजित होकर वापस चला गया। हेन
सांग नामक एक चीनी नागरिक यहां ज्ञान की तलाश में आया और उसने नालंदा तथा
तक्षशिला विश्वविद्यालयों में भ्रमण किया जो प्राचीन भारतीय
विश्वविद्यालय हैं। कोलम्बस भारत आना चाहता था किन्तु उसने अमेरिका के
तटों पर उतरना पसंद किया। पुर्तगाल से वास्को डिगामा व्यापार करने अपने
देश की वस्तुएं लेकर यहां आया जो भारतीय मसाले ले जाना चाहता था। यहां
फ्रांसीसी लोग भी आए और भारत में अपनी कॉलोनियां बनाई।
अंत में ब्रिटिश लोग आए और उन्होंने लगभग 200 साल तक भारत पर शासन किया।
वर्ष 1757 ने प्लासी के युद्ध के बाद ब्रिटिश जनों ने भारत पर राजनैतिक
अधिकार प्राप्त कर लिया। और उनका प्रभुत्व लॉर्ड डलहौजी के कार्य काल में
यहां स्थापित हो गया जो 1848 में गवर्नर जनरल बने। उन्होंने पंजाब,
पेशावर और भारत के उत्तर पश्चिम से पठान जनजातियों को संयुक्त किया। और
वर्ष 1856 तक ब्रिटिश अधिकार और उनके प्राधिकारी यहां पूरी मजबूती से
स्थापित हो गए। जबकि ब्रिटिश साम्राज्य में 19वीं शताब्दी के मध्य में
अपनी नई ऊंचाइयां हासिल की, असंतुष्ट स्थानीय शासकों, मजदूरों,
बुद्धिजीवियों तथा सामान्य नागरिकों ने सैनिकों की तरह आवाज़ उठाई जो उन
विभिन्न राज्यों की सेनाओं के समाप्त हो जाने से बेरोजगार हो गए थे,
जिन्हें ब्रिटिश जनों ने संयुक्त किया था और यह असंतोष बढ़ता गया। जल्दी
ही यह एक बगावत के रूप में फूटा जिसने 1857 के विद्रोह का आकार लिया।
1857 में भारतीय विद्रोह
भारत पर विजय, जिसे प्लासी के संग्राम
(1757) से आरंभ हुआ माना जा सकता है, व्यावहारिक रूप से 1856 में डलहौजी
के कार्यकाल का अंत था। किसी भी अर्थ में यह सुचारु रूप से चलने वाला मामला
नहीं था, क्योंकि लोगों के बढ़ते असंतोष से इस अवधि के दौरान अनेक
स्थानीय प्रांतियां होती रहीं। यद्यपि 1857 का विद्रोह, जो मेरठ में
सैन्य कर्मियों की बगावत से शुरू हुआ, जल्दी ही आगे फैल गया और इससे
ब्रिटिश शासन को एक गंभीर चुनौती मिली। जबकि ब्रिटिश शासन इसे एक वर्ष के
अंदर ही दबाने में सफल रहा, यह निश्चित रूप से एक ऐसी लोकप्रिय क्रांति थी
जिसमें भारतीय शासक, जनसमूह और नागरिक सेना शामिल थी, जिसने इतने उत्साह
से इसमें भाग लिया कि इसे भारतीय स्वतंत्रता का पहला संग्राम कहा जा सकता
है।
ब्रिटिश द्वारा जमीनदारी प्रथा को शुरू करना, जिसमें मजदूरों को भारी करों
के दबाव से कुचल डाला गया था, इससे जमीन के मालिकों का एक नया वर्ग बना।
दस्तकारों को ब्रिटिश निर्मित वस्तुओं के आगमन से नष्ट कर दिया गया।
धर्म और जाति प्रथा, जिसने पारम्परिक भारतीय समाज की सुदृढ़ नींव बनाई थी
अब ब्रिटिश प्रशासन के कारण खतरे में थी। भारतीय सैनिक और साथ ही प्रशासन
में कार्यरत नागरिक वरिष्ठ पदों पर पदोन्नत नहीं किए गए, क्योंकि ये
यूरोपियन लोगों के लिए आरक्षित थे। इस प्रकार चारों दिशाओं में ब्रिटिश
शासन के खिलाफ असंतोष और बगावत की भावना फैल गई, जो मेरठ में सिपाहियों के
द्वारा किए गए इस बगावत के स्वर में सुनाई दी जब उन्हें ऐसी कारतूस मुंह
से खोलने के लिए कहा गया जिन पर गाय और सुअर की चर्बी लगी हुई थी, इससे
उनकी धार्मिक भावनाएं आहत हुईं। हिन्दु तथा मुस्लिम दोनों ही सैनिकों ने
इन कारतूसों का उपयोग करने से मना कर दिया, जिन्हें 9 मई 1857 को अपने
साथी सैनिकों द्वारा क्रांति करने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया।
बगावती सेना ने जल्दी ही दिल्ली पर कब्जा कर लिया और यह क्रांति एक बड़े
क्षेत्र में फैल गई और देश के लगभग सभी भागों में इसे हाथों हाथ लिया गया।
इसमें सबसे भयानक युद्ध दिल्ली, अवध, रोहिलखण्ड, बुंदेल खण्ड, इलाहबाद,
आगरा, मेरठ और पश्चिमी बिहार में लड़ा गया। विद्रोही सेनाओं में बिहार में
कंवर सिंह के तथा दिल्ली में बख्तखान के नेतृत्व में ब्रिटिश शासन को
एक करारी चोट दी। कानपुर में नाना साहेब ने पेशावर के रूप में उद्घघोषणा की
और तात्या टोपे ने उनकी सेनाओं का नेतृत्व किया जो एक निर्भीक नेता थे।
झांसी की रानी लक्ष्मी बाई ने ब्रिटिश के साथ एक शानदार युद्ध लड़ा और
अपनी सेनाओं का नेतृत्व किया। भारत के हिन्दु, मुस्लिक, सिक्ख और अन्य
सभी वीर पुत्र कंधे से कंधा मिलाकर लड़े और ब्रिटिश राज को उखाड़ने का
संकल्प लिया। इस क्रांति को ब्रिटिश राज द्वारा एक वर्ष के अंदर नियंत्रित
कर लिया गया जो 10 मई 1857 को मेरठ में शुरू हुई और 20 जून 1858 को
ग्वालियर में समाप्त हुई।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (1857-1947)
ईस्ट इन्डिया कम्पनी का अंत
1857
के विद्रोह की असफलता के परिणामस्वरूप, भारत में ईस्ट इन्डिया कंपनी के
शासन का अंत भी दिखाई देने लगा तथा भारत के प्रति ब्रिटिश शासन की नीतियों
में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए, जिसके अंतर्गत भारतीय राजाओं, सरदारों और
जमींदारों को अपनी ओर मिलाकर ब्रिटिश शासन को सुदृढ़ करने के प्रयास किए
गए। रानी विक्टोरिया के दिनांक 1 नवम्बर 1858 की घोषणा के अनुसार यह
उद्घोषित किया गया कि इसके बाद भारत का शासन ब्रिटिश राजा के द्वारा व उनके
वास्ते सेक्रेटरी आफ स्टेट द्वारा चलाया जाएगा। गवर्नर जनरल को वायसराय
की पदवी दी गई, जिसका अर्थ था कि वह राजा का प्रतिनिधि था। रानी
विक्टोरिया जिसका अर्थ था कि वह सम्राज्ञी की पदवी धारण करें और इस प्रकार
ब्रिटिश सरकार ने भारतीय राज्य के आंतरिक मामलों में दखल करने की असीमित
शक्तियां धारण कर लीं। संक्षेप में भारतीय राज्य सहित भारत पर ब्रिटिश
सर्वोच्चता सुदृढ़ रूप से स्थापित कर दी गई। अंग्रेजों ने वफादार राजाओं,
जमींदारों और स्थानीय सरदारों को अपनी सहायता दी जबकि, शिक्षित लोगों व
आम जन समूह (जनता) की अनदेखी की। उन्होंने अन्य स्वार्थियों जैसे
ब्रिटिश व्यापारियों, उद्योगपतियों, बागान मालिकों और सिविल सेवा के
कार्मिकों (सर्वेन्ट्स) को बढ़ावा दिया। इस प्रकार भारत के लोगों को शासन
चलाने अथवा नीतियां बनाने में कोई अधिकार नहीं था। परिणाम स्वरूप ब्रिटिश
शासन से लोगों को घृणा बढ़ती गई, जिसने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को जन्म
दिया।
स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व राजा राम मोहन राय, बंकिम चन्द्र और
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जैसे सुधारवादियों के हाथों में चला गया। इस
दौरान राष्ट्रीय एकता की मनोवैज्ञानिक संकल्पना भी, एक सामान्य विदेशी
अत्याचारी/तानाशाह के विरूद्ध संघर्ष की आग को धीरे-धीरे आगे बढ़ाती रही।
राजा राम मोहन राय (1772-1833) ने समाज को उसकी बुरी प्रथाओं से मुक्त
करने के उद्देश्य से 1928 में ब्रह्म समाज की स्थापना की। उन्होंने
सती, बाल विवाह व परदा पद्धति जैसी बुरी प्रथाओं को समाप्त करने के लिए
काम किया, विधवा विवाह स्त्री शिक्षा और भारत में अंग्रेजी पद्धति से
शिक्षा दिए जाने का समर्थन किया। इन्हीं प्रयासों के कारण ब्रिटिश शासन
द्वारा सती होने को एक कानूनी अपराध घोषित किया गया।
स्वामी विवेकानन्द (1863-1902) जो रामकृष्ण परमहंस के शिष्य/अनुयायी
थे, ने 1897 में वेलूर में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। उन्होंने
वेदांतिक दर्शन की सर्वोच्चता का समर्थन किया। 1893 में शिकागो (यू एस ए)
की विश्व धर्म कांफ्रेस में उनके भाषण ने, पहली बार पश्चिमी लोगों को,
हिंदू धर्म की महानता को समझने पर मज़बूर किया।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आई एन सी) का गठन
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की नींव, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी द्वारा 1876 में
कलकत्ता में भारत एसोसिएशन के गठन के साथ रखी गई। एसोसिएशन का उद्देश्य
शिक्षित मध्यम वर्ग का प्रतिनिधित्व करना, भारतीय समाज को संगठित
कार्यवाही के लिए प्रेरित करना था। एक प्रकार से भारतीय एसोसिएशन, भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस, जिसकी स्थापना सेवा निवृत्त ब्रिटिश अधिकारी
ए.ओ.ह्यूम की सहायता की गई थी, की पूर्वगामी थी। 1895 में भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस (आई एन सी) के जन्म से नव शिक्षित मध्यम वर्ग के
राजनीति में आने के लक्ष्ण दिखाई देने लगे तथा इससे भारतीय राजनीति का
स्वरूप ही बदल गया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पहला अधिवेशन दिसम्बर
1885 में बम्बई में वोमेश चन्द्र बनर्जी की अध्यक्षता में हुआ तथा इसमें
अन्यों के साथ-साथ भाग लिया।
सदी के बदलने के समय, बाल गंगाधर तिलक और अरविंद घोष जैसे नेताओं द्वारा
चलाए गए "स्वदेशी आंदोलन" के मार्फत् स्वतंत्रता आंदोलन सामान्य
अशिक्षित लोगों तक पहंचा। 1906 में कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन
जिसकी अध्यक्षता दादा भाई नौरोजी ने की थी, ने "स्वराज्य" प्राप्त करने
का नारा दिया अर्थात् एक प्रकार का ऐसा स्वशासन जा ब्रिटिश नियंत्रण में
चुने हुए व्यक्तियों द्वारा चलाया जाने वाला शासन हो, जैसा कनाडा व
आस्ट्रेलिया में, जो ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन थे, में प्रचलित था।
बीच, 1909 में ब्रिटिश सरकार ने, भारत सरकार के ढांचे में कुछ सुधार लाने
की घोषणा की, जिसे मोरले-मिन्टो सुधारों के नाम से जाना जाता है। परन्तु
इन सुधारों से निराशा ही प्राप्त हुई क्योंकि इसमें प्रतिनिधि सरकार की
स्थापना की दिशा में बढ़ने का कोई प्रयास दिखाई नहीं दिया। मुसलमानों को
विशेष प्रतिनिधित्व दिए जाने के प्रावधान को हिंदु-मुसलमान एकता जिस पर
राष्ट्रीय आंदोलन टिका हुआ था, के लिए खतरे के रूप में देखा गया अत:
मुसलमानों के नेता मोहम्मद अली जिन्ना समेत सभी नेताओं द्वारा इन सुधारों
का ज़ोरदार विरोध किया गया। इसके बाद सम्राट जार्ज पंचम ने दिल्ली में दो
घोषणाएं की, प्रथम बंगाल विभाजन जो 1905 में किया गया था को निरस्त किया
गया, द्वितीय, यह घोषणा की गई कि भारत की राजधानी कलकत्ता से हटाकर
दिल्ली लाई जाएगी।
वर्ष 1909 में घोषित सुधारों से असंतुष्ट होकर स्वराज आन्दोलन के संघर्ष को
और तेज कर दिया गया। जहां एक ओर बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और विपिन
चन्द्र पाल जैसे महान नेताओं ने ब्रिटिश राज के खिलाफ एक तरह से लगभग
युद्ध ही शुरू कर दिया तो दूसरी ओर क्रांतिकारियों ने हिंसात्मक गतिविधियां
शुरू कर दीं। पूरे देश में ही एक प्रकार की अस्थिरता की लहर चल पड़ी।
लोगों के बीच पहले से ही असंतोष था, इसे और बढ़ाते हुए 1919 में रॉलेट एक्ट
अधिनियम पारित किया गया, जिससे सरकार ट्रायल के बिना लोगों को जेल में रख
सकती थी। इससे लोगों में स्वदेश की भावना फैली और बड़े-बड़े प्रदर्शन तथा
धरने दिए जाने लगे, जिन्हें सरकार ने जलियांवाला बाग नर संहार जैसी
अत्याचारी गतिविधियों से दमित करने का प्रयास किया, जहां हजारों बेगुनाह
शांति प्रिय व्यक्तियों को जनरल डायर के आदेश पर गोलियों से भून दिया गया।
जलियांवाला बाग नरसंहार
दिनांक 13 अप्रेल 1919 को जलियांवाला बाग में
हुआ नरसंहार भारत में ब्रिटिश शासन का एक अति घृणित अमानवीय कार्य था।
पंजाब के लोग बैसाखी के शुभ दिन जलियांवाला बाग, जो स्वर्ण मंदिर के पास
है, ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियों के खिलाफ अपना शांतिपूर्ण विरोध
प्रदर्शित करने के लिए एकत्रित हुए। अचानक जनरल डायर अपने सशस्त्र पुलिस
बल के साथ आया और निर्दोष निहत्थे लोगों पर अंधाधुंध गोलियां चलाई, तथा
महिलाओं और बच्चों समेंत सैंकड़ों लोगों को मार दिया। इस बर्बर कार्य का
बदला लेने के लिए बाद में ऊधम सिंह ने जलियांवाला बाग के कसाई जनरल डायर को
मार डाला।
प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के बाद मोहनदास करमचन्द गांधी कांग्रेस के
निर्विवाद नेता बने। इस संघर्ष के दौरान महात्मा गांधी ने अहिंसात्मक
आंदोलन की नई तरकीब विकसित की, जिसे उसने "सत्याग्रह" कहा, जिसका
ढीला-ढाला अनुवाद "नैतिक शासन" है। गांधी जो स्वयं एक श्रद्धावान हिंदु
थे, सहिष्णुता, सभी धर्मों में भाई में भाईचारा, अहिंसा व सादा जीवन
अपनाने के समर्थक थे। इसके साथ, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस जैसे
नए नेता भी सामने आए व राष्ट्रीय आंदोलन के लिए संपूर्ण स्वतंत्रता का
लक्ष्य अपनाने की वकालत की।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (1857-1947)
असहयोग आंदोलन
सितम्बर
1920 से फरवरी 1922 के बीच महात्मा गांधी तथा भारतीय राष्ट्रीय
कॉन्ग्रेस के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन चलाया गया, जिसने भारतीय
स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई जागृति प्रदान की। जलियांवाला बाग नर संहार
सहित अनेक घटनाओं के बाद गांधी जी ने अनुभव किया कि ब्रिटिश हाथों में एक
उचित न्याय मिलने की कोई संभावना नहीं है इसलिए उन्होंने ब्रिटिश सरकार
से राष्ट्र के सहयोग को वापस लेने की योजना बनाई और इस प्रकार असहयोग
आंदोलन की शुरूआत की गई और देश में प्रशासनिक व्यवस्था पर प्रभाव हुआ। यह
आंदोलन अत्यंत सफल रहा, क्योंकि इसे लाखों भारतीयों का प्रोत्साहन
मिला। इस आंदोलन से ब्रिटिश प्राधिकारी हिल गए।
साइमन कमीशन
असहयोग आंदोलन असफल रहा। इसलिए राजनैतिक गतिविधियों में
कुछ कमी आ गई थी। साइमन कमीशन को ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत सरकार की
संरचना में सुधार का सुझाव देने के लिए 1927 में भारत भेजा गया। इस कमीशन
में कोई भारतीय सदस्य नहीं था और सरकार ने स्वराज के लिए इस मांग को
मानने की कोई इच्छा नहीं दर्शाई। अत: इससे पूरे देश में विद्रोह की एक
चिंगारी भड़क उठी तथा कांग्रेस के साथ मुस्लिम लीग ने भी लाला लाजपत राय के
नेतृत्व में इसका बहिष्कार करने का आव्हान किया। इसमें आने वाली भीड़
पर लाठी बरसाई गई और लाला लाजपत राय, जिन्हें शेर - ए - पंजाब भी कहते
हैं, एक उपद्रव से पड़ी चोटों के कारण शहीद हो गए।
नागरिक अवज्ञा आंदोलन
महात्मा गांधी ने नागरिक अवज्ञा आंदोलन का
नेतृत्व किया, जिसकी शुरूआत दिसंबर 1929 में कांग्रेस के सत्र के दौरान की
गई थी। इस अभियान का लक्ष्य ब्रिटिश सरकार के आदेशों की संपूर्ण अवज्ञा
करना था। इस आंदोलन के दौरान यह निर्णय लिया गया कि भारत 26 जनवरी को पूरे
देश में स्वतंत्रता दिवस मनाएगा। अत: 26 जनवरी 1930 को पूरे देश में
बैठकें आयोजित की गई और कांग्रेस ने तिरंगा लहराया। ब्रिटिश सरकार ने इस
आंदोलन को दबाने की कोशिश की तथा इसके लिए लोगों को निर्दयतापूर्वक गोलियों
से भून दिया गया, हजारों लोगों को मार डाला गया। गांधी जी और जवाहर लाल
नेहरू के साथ कई हजार लोगों को गिरफ्तार किया गया। परन्तु यह आंदोलन देश
के चारों कोनों में फैल चुका था। इसके बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा गोलमेज
सम्मेलन आयोजित किया गया और गांधी जी ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में लंदन
में भाग लिया। परन्तु इस सम्मेलन का कोई नतीजा नहीं निकला और नागरिक
अवज्ञा आंदोलन पुन: जीवित हो गया।
इस समय, विदेशी निरंकुश शासन के खिलाफ प्रदर्शन स्वरूप दिल्ली में सेंट्रल
असेम्बली हॉल (अब लोकसभा) में बम फेंकने के आरोप में भगत सिंह, सुखदेव और
राजगुरू को गिरफ्तार किया गया था। 23 मार्च 1931 को उन्हें फांसी की सजा दे
दी गई।
इतिहास : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (1857-1947)
भारत छोड़ो आंदोलन
अगस्त
1942 में गांधी जी ने ''भारत छोड़ो आंदोलन'' की शुरूआत की तथा भारत छोड़
कर जाने के लिए अंग्रेजों को मजबूर करने के लिए एक सामूहिक नागरिक अवज्ञा
आंदोलन ''करो या मरो'' आरंभ करने का निर्णय लिया। इस आंदोलन के बाद रेलवे
स्टेशनों, दूरभाष कार्यालयों, सरकारी भवनों और अन्य स्थानों तथा उप
निवेश राज के संस्थानों पर बड़े स्तर पर हिंसा शुरू हो गई। इसमें तोड़
फोड़ की ढेर सारी घटनाएं हुईं और सरकार ने हिंसा की इन गतिविधियों के लिए
गांधी जी को उत्तरदायी ठहराया और कहा कि यह कांग्रेस की नीति का एक जानबूझ
कर किया गया कृत्य है। जबकि सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया,
कांग्रेस पर प्रतिबंद लगा दिया गया और आंदोलन को दबाने के लिए सेना को बुला
लिया गया।
इस बीच नेता जी सुभाष चंद्र बोस, जो अब भी भूमिगत थे, कलकत्ता में ब्रिटिश
नजरबंदी से निकल कर विदेश पहुंच गए और ब्रिटिश राज को भारत से उखाड़ फेंकने
के लिए उन्होंने वहां इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) या आजाद हिंद फौज का
गठन किया।
द्वितीय विश्व युद्ध सितम्बर 1939 में शुरू हुआ और भारतीय नेताओं से
परामर्श किए बिना भारत की ओर से ब्रिटिश राज के गर्वनर जनरल ने युद्ध की
घोषणा कर दी। सुभाष चंद्र बोस ने जापान की सहायता से ब्रिटिश सेनाओं के साथ
संघर्ष किया और अंडमान और निकोबार द्वीप समूहों को ब्रिटिश राज के कब्जे
से मुक्त करा लिया तथा वे भारत की पूर्वोत्तर सीमा पर भी प्रवेश कर गए।
किन्तु 1945 में जापान ने पराजय पाने के बाद नेता जी एक सुरक्षित स्थान
पर आने के लिए हवाई जहाज से चले परन्तु एक दुर्घटनावश उनके हवाई जहाज के
साथ एक हादसा हुआ और उनकी मृत्यु हो गई।
"''तुम मुझे खून दो और मैं तुम्हें आजादी दूंगा'' - उनके द्वारा दिया गया
सर्वाधिक लोकप्रिय नारा था, जिसमें उन्होंने भारत के लोगों को आजादी के इस
संघर्ष में भाग लेने का आमंत्रण दिया।
भारत और पाकिस्तान का बंटवारा
द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने पर
ब्रिटिश प्रधान मंत्री क्लेमेंट रिचर्ड एटली के नेतृत्व में लेबर पार्टी
शासन में आई। लेबर पार्टी आजादी के लिए भारतीय नागरिकों के प्रति
सहानुभूति की भावना रखती थी। मार्च 1946 में एक केबिनैट कमीशन भारत भेजा
गया, जिसके बाद भारतीय राजनैतिक परिदृश्य का सावधानीपूर्वक अध्ययन किया
गया, एक अंतरिम सरकार के निर्माण का प्रस्ताव दिया गया और एक प्रांतीय
विधान द्वारा निर्वाचित सदस्यों और भारतीय राज्यों के मनोनीत व्यक्तियों
को लेकर संघटक सभा का गठन किया गया। जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व ने एक
अंतरिम सरकार का निर्माण किया गया। जबकि मुस्लिम लीग ने संघटक सभा के विचार
विमर्श में शामिल होने से मना कर दिया और पाकिस्तान के लिए एक अलग राज्य
बनाने में दबाव डाला। लॉर्ड माउंटबेटन, भारत के वाइसराय ने भारत और
पाकिस्तान के रूप में भारत के विभाजन की एक योजना प्रस्तुत की और तब
भारतीय नेताओं के सामने इस विभाजन को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प
नहीं था, क्योंकि मुस्लिम लीग अपनी बात पर अड़ी हुई थी।
इस प्रकार 14 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को भारत आजाद हुआ (तब से हर वर्ष
भारत में 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है)। जवाहर लाल नेहरू
स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने और 1964 तक उनका कार्यकाल जारी
रहा। राष्ट्र की भावनाओं को स्वर देते हुए प्रधानमंत्री, पंडित जवाहरलाल
नेहरू ने कहा,
कई वर्ष पहले हमने नियति के साथ निश्चित किया और अब वह समय आ गया है जब हम
अपनी शपथ दोबारा लेंगे, समग्रता से नहीं या पूर्ण रूप से नहीं बल्कि
अत्यंत भरपूर रूप से। मध्य रात्रि के घंटे की चोट पर जब दुनिया सो रही
होगी हिन्दुस्तान जीवन और आजादी के लिए जाग उठेगा। एक ऐसा क्षण जो इतिहास
में दुर्लभ ही आता है, जब हम अपने पुराने कवच से नए जगत में कदम रखेंगे,
जब एक युग की समाप्ति होगी और जब राष्ट्र की आत्मा लंबे समय तक दमित रहने
के बाद अपनी आवाज पा सकेगा। हम आज दुर्भाग्य का एक युग समाप्त कर रहे
हैं और भारत अपनी दोबारा खोज आरंभ कर रहा है।
पहले, संघटक सभा का गठन भारतीय संविधान को रूपरेखा देना के लिए जुलाई 1946
में किया गया था और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को इसका राष्ट्रपति निर्वाचित
किया गया था। भारतीय संविधान, जिसे 26 नवम्बर 1949 को संघटक सभा द्वारा
अपनाया गया था। 26 जनवरी 1950 को यह संविधान प्रभावी हुआ और डॉ. राजेन्द्र
प्रसाद को भारत का प्रथम राष्ट्रपति चुना गया।