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लिखिए अपनी भाषा में

  1. रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चॉंद
    आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है !
    उलझनें अपनी बनाकर आप ही फॅंसता,
    और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।

    जानता है तू कि मैं कितना पुराना हॅू!
    मैं चुका हूं देख मनु को जन्मते—मरते;
    और लाखों बार तुझ—से पागलों को भी
    चॉंदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

    आदमी का स्वप्न ? है बह बुलबुला जल का,
    आज उठता और कल फिर फूट जाता ;
    किन्‍तु, फिर भी धन्‍य ; ठहरा आदमी ही तो ?
    बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता हैा

    मैं न बोला, किन्‍तु, मेरी रागिनी बोली,
    देख फिर से, चॉद मुझको जानता है तू ?
    स्‍वप्‍न मेरे बुलबुले हैं हैं यही पानी ?
    आग को भी क्‍या नहीं पहचानता है तू ?

    मैं न वह जो स्‍वप्‍न पर केवल सही करते
    आग में उसको गला लोहा बनाती है ;
    और उस पर नींव रखती हूं नये घर की
    इस तरह, दीवार फौलादी उठाती हूं

    मनु नहीं, मनु पुञ है यह सामने, जिसकी
    कल्‍पना की जीभ में भी धार होती है ,
    बात ही होते विचारों के नहीं केवल,
    स्‍वप्‍न के भी हाथ में तलवार होती हैा

    स्‍वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
    ''रोज ही आकाश चढते जा रहे हैं वे;
    रोकिये, जैसे बने, इन स्‍वप्‍नबालों को,
    स्‍वर्ग को ही और वढते आ रहे हैं वे'' |

    -रामधारी सिंह 'दिनकर' (सामधेनी से)
    Ramdhari Singh Dinkar

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