घटना सन् 1853 ई. की है। उस समय लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा पर बिल्कुल
ध्यान नहीं दिया जाता था। ऐसे में तीन जुलाई 1853 को पूना में ज्योतिबा
फूले ने लड़कियों को शिक्षा प्रदान करने के लिए एक स्कूल खोला। लेकिन
समस्या यह थी कि बालिकाओं को पढ़ाने के लिए स्कूल में शिक्षक की जगह
शिक्षिका ही होनी चाहिए।
उस समय एक शिक्षिका तलाश करना अत्यंत चुनौतीपूर्ण काम था। जो लड़कियां
थोड़ा-बहुत पढ़ी-लिखी भी थीं, वे भी घर के अंदर ही रहती थीं। ज्योतिबा
फूले को जब शिक्षिका के रूप में कोई महिला नहीं मिली तो उन्होंने अपनी
पत्नी सावित्री बाई फूले को इस काम के लिए राजी कर लिया।
ऐसे समय में जब लड़कियों को पढ़ाना ही गलत समझा जाता था, सावित्री बाई ने
शिक्षिका बनने का फैसला कर अपने लिए मुसीबतें खड़ी कर लीं। पूरा समाज
सावित्री के इस निर्णय से हिल गया। अपने को समाज का ठेकेदार मानने वालों
ने उनकी बहुत निंदा की। उन्हें धमकी तक दी गई। जब वह स्कूल जाने के लिए
निकलतीं तो लोग उन पर टीका-टिप्पणी करते, उन्हें तरह-तरह से परेशान करते,
उन पर पत्थर फेंकते। लेकिन सावित्री बाई इन घटनाओं से बिल्कुल नहीं
घबराईं। वह नियमित रूप से स्कूल जाती रहीं और आखिरकार उनकी मेहनत रंग
लाईं। आज उन्हें देश की प्रथम शिक्षिका के रूप में जाना जाता है।
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थोड़ा-बहुत पढ़ी-लिखी भी थीं, वे भी घर के अंदर ही रहती थीं। ज्योतिबा
फूले को जब शिक्षिका के रूप में कोई महिला नहीं मिली तो उन्होंने अपनी
पत्नी सावित्री बाई फूले को इस काम के लिए राजी कर लिया।
ऐसे समय में जब लड़कियों को पढ़ाना ही गलत समझा जाता था, सावित्री बाई ने
शिक्षिका बनने का फैसला कर अपने लिए मुसीबतें खड़ी कर लीं। पूरा समाज
सावित्री के इस निर्णय से हिल गया। अपने को समाज का ठेकेदार मानने वालों
ने उनकी बहुत निंदा की। उन्हें धमकी तक दी गई। जब वह स्कूल जाने के लिए
निकलतीं तो लोग उन पर टीका-टिप्पणी करते, उन्हें तरह-तरह से परेशान करते,
उन पर पत्थर फेंकते। लेकिन सावित्री बाई इन घटनाओं से बिल्कुल नहीं
घबराईं। वह नियमित रूप से स्कूल जाती रहीं और आखिरकार उनकी मेहनत रंग
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