मनुष्य शरीर और आत्मा दोनों से बना है, लेकिन इस सिद्धांत को व्यावहारिक रूप से समझना होगा। जीवन में जो भी क्रिया करें, दोनों को समझकर करें। केवल शरीर पर टिककर करेंगे तो जीवन भौतिकता में ही डूब जाएगा और केवल आत्मा से जोड़कर करेंगे तो अजीब-सी उदासी जीवन में होगी।
न बाहर से कटना है और न बाहर से पूरी तरह जुड़ना है। दोनों का संतुलन रखिए। जैन संत तरुणसागरजी दो घटनाएं शरीर से जुड़ी सुनाते हैं।
महावीर स्वामी पेड़ के नीचे ध्यानमग्न बैठे थे। पेड़ पर आम लटक रहे थे। बच्चों ने आम तोड़ने के लिए पत्थर फेंके। कुछ पत्थर आम को लगे और एक महावीर स्वामी को लगा। बच्चों ने कहा - प्रभु! हमें क्षमा करें, हमारे कारण आपको कष्ट हुआ है। प्रभु बोले - नहीं, मुझे कोई कष्ट नहीं हुआ। बच्चों ने पूछा - तो फिर आपकी आंखों में आंसू क्यों?
महावीर ने कहा - पेड़ को तुमने पत्थर मारा तो इसने तुम्हें मीठे फल दिए, पर मुझे पत्थर मारा तो मैं तुम्हें कुछ नहीं दे सका, इसलिए मैं दुखी हूं। यहां शरीर का महत्व बताया गया है।
आखिर इस शरीर पर किसका अधिकार है? माता-पिता कहते हैं - संतान मेरी है। पत्नी कहती है - मैं अपने माता-पिता को छोड़कर आई हूं, इसलिए इस पर मेरा अधिकार है। मृत्यु होने पर शरीर को श्मशान ले जाते हैं तो श्मशान कहता है - इस पर अब मेरा अधिकार है। चिता की अग्नि कहती है - यह तो मेरा भोजन है।
अब आप ही विचार करें कि इस शरीर पर आखिर किसका अधिकार है? इसलिए शरीर और आत्मा को जोड़कर, समझकर जिएंगे तो शरीर का सदुपयोग कर पाएंगे और आत्मा का भी आनंद ले पाएंगे।
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