फंडा यह है कि... बदलाव की जिद के आगे शिक्षा, अनुभव और एक्सपोजर जैसे कारक भी गौण हो जाते हैं। इसीलिए कहा गया है- 'जिद करो दुनिया बदलो'।
वर्ष 1996 में पैंतालीस वर्षीय माधुरी घोष अपने आस-पास की महिलाओं के लिए कुछ ऐसा करना चाहती थीं, जिससे वे अपना कारोबार शुरू कर सकें। इसके लिए उन्होंने अपने परिचितों की मदद से 5000 रुपए इकट्ठा किए। तब उन्हें पता नहीं था कि उनका यह छोटा-सा कदम आगे चलकर 23042 लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार का वाहक बनेगा और उनका संग्रह बढ़कर 11 करोड़ रुपए तक पहुंच जाएगा। हावड़ा के बगनान-1 इलाके के 80 गांवों तक पहुंच चुकी माधुरी घोष की माइक्रो क्रेडिट क्रांति की यह गाथा इंसानियत की जीत को इंगित करने के साथ मैनेजमेंट का यह सबक भी देती है कि मुनाफे के इर्द-गिर्द घूमने वाले हरेक सफल बिजनेस मॉडल को जरूरी नहीं कि अपनाया जाए। माधुरी 1995 में कोलकाता से 80 किमी दूर बंगालपुर गांव के बंगालपुर ज्योतिर्मयी प्राथमिक बालिका विद्यालय में शिक्षिका थीं। तभी उन्हें सरकार की ओर से वहां की महिलाओं में साक्षरता बढ़ाने का कहा गया। गांवों में दौरे करते हुए उन्हें एहसास हुआ कि आत्मनिर्भरता के बगैर सिर्फ शिक्षा इस सामंतवादी हिस्से में ज्यादा बदलाव नहीं ला पाएगी।
उन्हें 'ग्रामीण इलाकों में महिला व बाल विकास' नामक शासकीय प्रशिक्षण योजना में अवसर नजर आया। उन्होंने महिलाओं को सिलाई-कढ़ाई, बुनाई और पापड़-अचार बनाना इत्यादि सीखने के लिए प्रोत्साहित किया। हालांकि उनके लिए ऐसा करना आसान नहीं रहा। पुरुषों ने उन्हें यह कहते हुए खूब भला-बुरा कहा कि वे अपने व्यक्तिगत फायदे के लिए उनकी पत्नियों को उनसे दूर ले जा रही हैं और उन्हें एक भी पैसा नहीं देंगी। लेकिन धीरे-धीरे औरतें उन पर भरोसा करने लगीं क्योंकि वे उन बाकी महिलाओं की जिंदगी में बदलाव साफ देख सकती थीं, जिन्होंने पहले दिन से ही माधुरी पर भरोसा करते हुए अपनी आजीविका चलाने की तकनीकें सीखना शुरू कर दिया था।
इसके साथ-साथ माधुरी ने सेल्फ-हेल्प समूह भी तैयार किए। इसी दौरान सरकार ने भी 'समन्वय समिति' के नाम से एक सेंट्रल मार्केटिंग आउटलेट शुरू किया था, जहां पर ग्रामीण महिलाएं अपने उत्पाद बेच सकती थीं। माधुरी ने शुरुआत में इकट्ठा किए गए 5000 रुपए के फंड को इन सेल्फ-हेल्प समूहों की सहायता से1,33,000 तक पहुंचा दिया, जिससे महिलाएं छोटा-मोटा कारोबार कर सकती थीं। इस राशि से 'बगनान 1 महिला विकास सहकारी साख समिति' का जन्म हुआ। उन्होंने उन महिलाओं से वादा लिया कि वे अपने बच्चों को स्कूल भेजेंगी। इसके बाद इस समिति ने बंगालपुर की एक जीर्ण-शीर्ण स्कूली इमारत में यूनिसेफ की मदद से एक कैश कांउटर खोला और आज इस समिति की अपनी तीनमंजिला इमारत है और 2000 से ज्यादा सेल्फ-हेल्प समूह इससे जुड़े हैं। आज उनके पास कंप्यूटरीकृत बैंकिंग प्रणाली है, जो पूरी तरह महिलाओं द्वारा संचालित है। इसमें नया कारोबार शुरू करने के लिए एक फीसदी, तो घरेलू जरूरतों के लिए ड़ेढ फीसदी ब्याज दर पर कर्ज दिया जाता है। यह साख समिति समय पर या समय पूर्व भुगतान करने वालों को कुछ फायदा भी देती है। आज माधुरी उसी स्कूल की प्राध्यापिका हैं और इस साख समिति की चेयर पर्सन भी हैं। उन्हें इस इलाके में बांग्लादेश के मोहम्मद यूनुस की तरह सम्मान दिया जाता है, जो माइक्रो फाइनेंसिंग के लिए नोबेल पुरस्कार हासिल कर चुके हैं। माधुरी यह सब इसलिए कर पाईं क्योंकि उन्होंने ठान लिया था कि वे अपने आस-पास की महिलाओं की जिंदगी बदलकर रहेंगी।
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