24 जून को अपनी स्थापना के 150 साल पूरे कर रही रेडक्रॉस संस्था लाखों
लोगों के ज़ख़्मों पर मरहम लगा चुकी है. शांति के लिए रेडक्रॉस को तीन
बार नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है.
इराक़ में रेड क्रॉस का अभियान
जो काम दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क और सरकारें इतिहास में नहीं कर पाईं,
80 से ज़्यादा देशों में वो काम रेडक्रॉस ने कर दिखाया. सरहद, मजहब और
ख़तरे की परवाह किए बग़ैर रेड क्रॉस ने लाखों लोगों के ज़ख्मों पर मरहम
लगाया, उनके आंसू पोंछे. युद्ध के दौरान ज़ख्मी सैनिकों की मदद करने के
मकसद से 150 साल पहले शुरू हुई रेड क्रॉस अब अलग लेकिन
150 साल से मदद की मिसाल
इंसानियत के बड़े रास्ते पर हैं. अब वो करोड़ों आम लोगों की मदद कर रही
है. चाहे दो देशों की जंग हो, आतंकवादी हिंसा हो या फिर सूनामी और भूकंप,
सफेद झंडे के बीच में लाल क्रॉस का निशान हर जगह दिखाई पड़ता है.
हाल के दिनों में श्रीलंका और पाकिस्तान में आम लोगों को सहारा दे रहे
रेड क्रॉस ने न तो कभी इराक की थकान का ज़िक्र किया, न ही अफ्रीकी देश
रवांडा में अपनी मुश्किलें बताई. अपने राहत और बचाव कर्मियों की मौत पर
भी उसने कभी दूसरे देश के ख़िलाफ न तो मोर्चा खोला, न ही दबाव बनाने की
कोशिश की. इंसानियत के इस लंबे सफर में 24 जून को अपना स्थापना दिवस मना
रहे रेड क्रॉस ने इन 150 सालों में बदली दुनिया को अपने नज़रिए देखा है
रेड क्रॉस के प्रवक्ता फ्लोगियान वेस्टफाल कहते हैं.
साल्फरिनो ( ख़तरों के बीच मदद )
की लड़ाई में एक दिन में ही 40 हज़ार सैनिक मारे गए थे लेकिन उस लड़ाई
में आम आदमी को कोई नुकसान नहीं हुआ है. आज युद्ध में सैनिक कम और आम लोग
ही ज़्यादा मारे जाते हैं.
इसमें कोई शक नहीं कि रेड क्रॉस के प्रयासों को देखते हुए ही दुनिया के
ज़्यादातर देशों ने उसे कुछ विशेष अधिकार भी दिए. गैर सरकारी संस्था होने
के बावजूद रेड क्रॉस को ही यह हक है कि वह दुनिया के किसी भी देश में
युद्धबंदियों से मिल सके और उन्हें कानूनी मदद भी मुहैया करा सके. शांति
के लिए तीन बार नोबेल पुरस्कार से नवाज़ी गई रेड क्रॉस ही वह एक मात्र
संस्था है जिसने कई देशों में राहत, बचाव और पुर्नवास में मदद तो की
लेकिन वहां की सियासत से खु़द को दूर ही रखा. बहरहाल इतना तो तय है कि
जिस इरादे से 150 साल पहले जब रेड क्रॉस की स्थापना की गई, उसी समर्पण से
आज भी ये संस्था इंसानियत को सहारा दे रही है.
--
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लोगों के ज़ख़्मों पर मरहम लगा चुकी है. शांति के लिए रेडक्रॉस को तीन
बार नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है.
इराक़ में रेड क्रॉस का अभियान
जो काम दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क और सरकारें इतिहास में नहीं कर पाईं,
80 से ज़्यादा देशों में वो काम रेडक्रॉस ने कर दिखाया. सरहद, मजहब और
ख़तरे की परवाह किए बग़ैर रेड क्रॉस ने लाखों लोगों के ज़ख्मों पर मरहम
लगाया, उनके आंसू पोंछे. युद्ध के दौरान ज़ख्मी सैनिकों की मदद करने के
मकसद से 150 साल पहले शुरू हुई रेड क्रॉस अब अलग लेकिन
150 साल से मदद की मिसाल
इंसानियत के बड़े रास्ते पर हैं. अब वो करोड़ों आम लोगों की मदद कर रही
है. चाहे दो देशों की जंग हो, आतंकवादी हिंसा हो या फिर सूनामी और भूकंप,
सफेद झंडे के बीच में लाल क्रॉस का निशान हर जगह दिखाई पड़ता है.
हाल के दिनों में श्रीलंका और पाकिस्तान में आम लोगों को सहारा दे रहे
रेड क्रॉस ने न तो कभी इराक की थकान का ज़िक्र किया, न ही अफ्रीकी देश
रवांडा में अपनी मुश्किलें बताई. अपने राहत और बचाव कर्मियों की मौत पर
भी उसने कभी दूसरे देश के ख़िलाफ न तो मोर्चा खोला, न ही दबाव बनाने की
कोशिश की. इंसानियत के इस लंबे सफर में 24 जून को अपना स्थापना दिवस मना
रहे रेड क्रॉस ने इन 150 सालों में बदली दुनिया को अपने नज़रिए देखा है
रेड क्रॉस के प्रवक्ता फ्लोगियान वेस्टफाल कहते हैं.
साल्फरिनो ( ख़तरों के बीच मदद )
की लड़ाई में एक दिन में ही 40 हज़ार सैनिक मारे गए थे लेकिन उस लड़ाई
में आम आदमी को कोई नुकसान नहीं हुआ है. आज युद्ध में सैनिक कम और आम लोग
ही ज़्यादा मारे जाते हैं.
इसमें कोई शक नहीं कि रेड क्रॉस के प्रयासों को देखते हुए ही दुनिया के
ज़्यादातर देशों ने उसे कुछ विशेष अधिकार भी दिए. गैर सरकारी संस्था होने
के बावजूद रेड क्रॉस को ही यह हक है कि वह दुनिया के किसी भी देश में
युद्धबंदियों से मिल सके और उन्हें कानूनी मदद भी मुहैया करा सके. शांति
के लिए तीन बार नोबेल पुरस्कार से नवाज़ी गई रेड क्रॉस ही वह एक मात्र
संस्था है जिसने कई देशों में राहत, बचाव और पुर्नवास में मदद तो की
लेकिन वहां की सियासत से खु़द को दूर ही रखा. बहरहाल इतना तो तय है कि
जिस इरादे से 150 साल पहले जब रेड क्रॉस की स्थापना की गई, उसी समर्पण से
आज भी ये संस्था इंसानियत को सहारा दे रही है.
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