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  1. सभी पाठकगणों / मित्रों से मेरा अनुरोध है कि वह please इस ब्लॉग को अपने
    बच्चों को अवश्य पढ़ायें |

    आजकल समाचारपत्रों /टी0 वी0 न्यूज़ के माध्यम से आत्महत्या के संबंध में
    कोई न कोई समाचार प्रत्येक दिन पढ़ने - सुनने को मिलता ही रहता है |
    परीक्षा में कम अंक आने अथवा फेल होने पर अमुक छात्र ने विषैला पदार्थ
    खाकर आत्महत्या कर ली | माता- पिता द्वारा डाँटने पर पुत्र ने आत्महत्या
    कर ली | एक तरफ़ा प्रेम -प्रेमिका की शादी- प्रेमी द्वारा आत्महत्या |
    पति -पत्नी में अनबन - पत्नी द्वारा आत्महत्या | सास के ताने - नव वधू
    द्वारा आत्महत्या | पत्नी वियोग - पति द्वारा आत्महत्या | ऐसे समाचारों
    को सुनकर हम सभी का मन विचलित होने के साथ-साथ दुखी होना लाज़िमी है |
    ऐसा मनुष्य यह जानते हुए भी कि जीवन अमूल्य है , फिर भी स्वयं के जीवन को
    समाप्त करने का घातक निर्णय आख़िर क्यों ले लेता है ? आइए ! पहले इनके
    कारणों के जानने की कोशिश करते हैं |

    सभी पाठकगणों / मित्रों से मेरा अनुरोध है कि वह please इस ब्लॉग को अपने
    बच्चों को अवश्य पढ़ायें |

    आत्म हत्या करने से पूर्व की स्थिति ---- ऐसा कोई कर्म जिसका पश्चाताप
    होने पर अत्यन्त शर्मिन्दगी /आत्मग्लानि उत्पन्न होने लगे, रोज-रोज के
    ताने सुनने पर अथवा कोई असहनीय दुख, अत्याधिक चिन्ता व तनाव, लगातार
    विपरीत परिस्थितियाँ उत्पन्न होने तथा संघर्ष करते करते सहनशीलता
    (patience) टूट जाने पर एक अन्तर्द्वन्द- युद्ध, मस्तिष्क में विचारों का
    होता है | मस्तिष्क में हताशा एवम निराशा से भरे. नकारात्मक विचार
    बहु-संख्या में जल्दी-जल्दी लगातार आते हैं | एक सकारात्मक विचार दूसरे
    नकारात्मक विचार से युद्ध करता है | परन्तु नकारात्मक विचार क्रोधित
    अवस्था में रहते हुए इतना बलवान होता है कि सकारात्मक विचार की आवाज़ को
    बड़ी निर्दयता के साथ कुचलते हुए दबाता जाता है |

    ऐसा मनुष्य स्वयं को , सभी ओर से बंद दरवाज़ों में फँसा हुआ, अत्याधिक
    घुटन से भरा हुआ महसूस करता है |उससे निकलने का कोई रास्ता उसे दिखाई
    नहीं देता है | विवेक-शक्ति के साथ-साथ आगे जीने की इच्छा-शक्ति बिल्कुल
    शून्य हो जाती है, उसे ऐसा लगता है कि उसके अब जीने का कोई अर्थ नहीं है
    | अब सब कुछ समाप्त हो चुका है | अब जीना बेकार है जैसे शब्द,
    मन-मस्तिष्क में काफ़ी बलशाली होकर प्रत्येक पल गूंजते रहते है और
    नर्वसनैस को बल देते हुए आत्मघाती कदम उठाने के लिए काफ़ी तीव्रता के साथ
    प्रेरित करते हैं | ऐसे मनुष्य को आत्महत्या ही विकल्प के रूप में दिखाई
    देता है | अंतिम चरण में कोई सकारात्मक विचार, मस्तिष्क में नहीं रह
    जाता, सभी सकारात्मक विचार युद्ध करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं
    | अनुत्तरित नकारात्मक विचारों एवं प्रश्नों की एक विशाल, हताशा से भरी
    श्रंखला, मस्तिष्क को विवेक शून्य/दिमागी-नपुंसक करती हुई, शरीर को
    समाप्त करने के लिए लगातार प्रेरित करती रहती है ....... अन्तोगत्वा
    आत्मघाती निर्णय की जीत हो जाती है |

    मेरा स्वयं का विचार है कि आत्मघाती कदम उठाने का विचार लगभग प्रत्येक
    मनुष्य के पूरे जीवन काल में, एक बार अवश्य आता है | मित्रों ! मैं स्वयं
    इसको इतना स्पष्ट रूप से इसलिए कह पा रहा हूँ क्योंकि मेरी भी अब तक की
    जिंदगी में ऐसे दो बार विचारों का अंतर्द्वंद-युद्ध हुआ था | परंतु
    सर्वशक्तिमान के नेटवर्क से लगातार जुड़ा रहने के कारण ईश्वर की हर बार
    कृपा रही | वह मुझे दोनो बार गहन अंधकार से रोशनी में लाये |

    ऐसी स्थिति उत्पन्न न हो , इसके लिए क्या किया जाए ? ऐसी स्थिति से
    निपटने के लिए एक अच्छे विचारों वाला सुसंस्कृत, सुयोग्य मित्र, भाई, बहन
    एवं माता-पिता संजीवनी की तरह से, हमारे समक्ष मौजूद होते हैं | हमारे
    जीवन में अनेकानेक घटनाओं का घटित होना, कर्मों की परिणामी प्राकॄतिक
    प्रतिक्रिया है | कभी अप (up) तो कभी डाउन (down) | किसी घटना से खुश तो
    किसी घटना हम इतने व्यथित हो जाते हैं कि अपने आपको निःसहाय महसूस करते
    हैं | ऐसी स्थिति में यदि हम अपनी उलझन एवं तनाव पूर्ण बातों को, अच्छे
    विचारों वाले सुयोग्य मित्र -भाई, बहन एवं माता-पिता से शेयर करते हैं |
    तब वह हीनभावना / आत्मग्लानि वाली बातों को डिलीट(delete) करने के साथ,
    उनकी उत्साहवर्धक एवं हौसले से भरी बातें, सकारात्मक विचारों को बल देना
    प्रारम्भ कर देती हैं | तब मन-मस्तिष्क में चल रहे अंतर्द्वंद-युद्ध का
    वेग स्वतः हल्के होते हुए समाप्त हो जाता है |चित्त के शांत होने और
    आत्म-चिन्तन पश्चात दॄढ़ता के साथ जीने की नई उमंग पुनः जाग्रत हो जाती
    है |

    आत्महत्या सामाजिक द्रष्टिकोण से सर्वथा अनुचित एवं अक्षम्य है | यह शरीर
    हमारे माता-पिता द्वारा प्रदान किया हुआ है | उन्होने अच्छे-बुरे समय को
    झेलते हुए हमारी सुरक्षा के साथ पालन - पोषण किया, उनके दिए हुए इस शरीर
    को आत्मघाती कदम उठाकर समाप्त करना, क्षमा योग्य नहीं है | मृत्योपरान्त
    दुखी माता-पिता यही कहते हैं कि ईश्वर ऐसी औलाद किसी को भी न दे / ऐसी
    औलाद पैदा होते ही मर जाए / ऐसी संतान से निःसंतान होना कहीं अच्छा है |

    ईश्वरीय द्रष्टिकोण से भी आत्महत्या, महापाप की श्रेणी में आता है |
    सर्वशक्तिमान ने भी मनुष्य को कर्म फलानुसार दुख-सुख भोगते हुए
    मुक्ति-प्रशस्त हेतु हमें मनुष्य शरीर दिलाकर सुनहरा अवसर प्रदान किया है
    | अकाल मृत्यु को छोड़कर, शरीर का अंत होने का समय भी निर्धारित है |
    परंतु समय से पूर्व ही आत्मघाती कदम उठाते हुए आत्महत्या करना, मिले
    सुनहरे अवसर को खोने के साथ-साथ ईश्वर आदेश की अवहेलना भी है | समय से
    पूर्व ऐसे शरीर से निकली आत्मा सर्वशक्तिमान को स्वीकार नहीं है | उसने
    जितने समय के लिए हमें भेजा था, मृत्योपरान्त अवशेष समय बिना शरीर के ही
    शून्य में विचरण करते रहना होता है |यह पीड़ा उस पीड़ा से कहीं अधिक
    भयंकर है जिस पीड़ा के रहते आत्महत्या की गई | मुक्ति सत्कर्म में निहित
    है | शरीर मिले बिना कर्म सम्भव नहीं | स्वयं ही अपने शरीर को मृत्यु
    देने से , मुक्ति के सभी रास्ते बंद हो जाते हैं | हम अपने शरीर के दाता
    माता-पिता के साथ-साथ सर्वशक्तिमान के भी दोषी हो जाते हैं |

    जिंदगी धूप -छावँ की तरह है | आज कष्ट है तो कल आराम भी मिलेगा |
    किशोरावस्था में कदम रखने के बाद जीवन में संघर्ष शुरू हो जाता है जो
    अंतिम समय तक चलता ही रहता है | संघर्ष के रूप बदलते रहते हैं | प्रत्येक
    संघर्ष को परीक्षा मानना चाहिए | परीक्षाओं से विमुख होना कायरता माना
    जाता है | जिस जीवन में कोई संघर्ष नहीं, ऐसा जीवन भी बेमानी है | जिस
    मनुष्य को आरंभ से सुख मिलता रहा हो, उस मनुष्य को थोड़ा सा दुख भी
    असहनीय होता है |

    ऐसा मान लें कि सुख- दुख साईकिल (जीवन) के 2 पहिए हैं | अगला पहिया सुख
    का तो पिछला पहिया दुख का | जीवन रूपी साईकिल को आगे बढा़ने के लिए दुख
    वाले पहिए को ही चैन द्वारा घुमाने हेतु ज़ोर लगाना होता है | आगे का सुख
    वाला पहिया स्वतः ही घूमने लगता है | यहाँ समझने का अर्थ यह है कि सुख
    रूपी पहिया अपने आप नहीं चलता | दुख रूपी पहिए का ईमानदारी से परिश्रम
    /संघर्ष / मंथन करने पर ही सुख रूपी अगला पहिया स्वतः चलने लगता है | एक
    वक्त ऐसा भी आता है जब कष्टों की लाइन सी लगी होती है | यानि किसी चढ़ाई
    पर दुख रूपी पहिए पर काफ़ी ज़ोर लगाना होता है परंतु यह भी निश्चित है कि
    चढ़ाई के बाद ढलान भी आना है और ढलान पर दुख रूपी पिछ्ले पहिए पर कोई
    श्रम नहीं करना होता है यानि ऐसी स्टेज कि पैडल पर कोई ज़ोर लगाने की
    ज़रूरत ही नहीं, दुख रूपी पहिया साथ होते हुए भी दुख का पता ही नहीं चलता
    क्योंकि उस समय उसमें कोई संघर्ष / श्रम नहीं होता है | कोई अंजाने में
    कोई गलती हो भी गयी तो उसका दण्ड आत्महत्या कदापि नहीं हो सकता | परीक्षा
    में कम अंक आए या फेल हो गये तो क्या हुआ ? अपनी कमियों का गंभीरता के
    साथ निरीक्षण कर दुबारा एक नये होसले के साथ कोशिश करनी चाहिये | आज के
    समय में क्रोध बच्चों पर बुरी तरह हावी है | उनमें सहनशीलता (patience)
    की कमी है | माता पिता का हल्का सा क्रोध भी बर्दाश्त के बाहर है |यह सब
    वर्तमान परिवेश की ही देन है, अतः परिवार के हर सदस्य को समझाते हुए ही
    चलना बेहतर है |

    आइए ! एक उदाहरण चींटी का ही लें | एक चावल के दाने को जो उसके वजन से
    कहीं अधिक भारी होकर भी चींटी उसे छोड़ती नहीं | उसे खींचकर अपने बिल में
    ले ही जाती है | उसका यह प्रयास यदि एक बार में सफल नहीं होता है तो वह
    उसे अनेकों बार दोहराती है.....अन्तोगत्वा वह सफल हो ही जाती है |

    हमारे समक्ष चाहें कैसी भी विषम भरी परिस्थितियाँ आएँ,हमें अपने
    सर्वशक्तिमान को साक्षी बनाकर, लगातार संघर्ष करते रहना होगा, परंतु
    आत्महत्या......कदापि नहीं |

    Name: TRIBHUWAN KISHOR

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  2. 1 comments:

    1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन जल ही जीवन है - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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