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लिखिए अपनी भाषा में

  1. मर गई मानवता, शर्मसार हो गई इंसानियत, एक परिवार सड़क पर तड़पता रहा, एक
    पिता, एक पति, अपनी पत्नी के लिए, अपनी मासूम बच्ची के लिए बेरहम लोगों
    से करीब डेढ़ घंटे मदद की भीख मांगता रहा. लेकिन करीब पचास लाख की आबादी
    वाले जयपुर शहर में उसके पास से हजारों इंसान तो गुजरे पर मदद का हाथ
    किसी ने नहीं बढ़ाया. आखिर में पथरीली सड़क पर पत्थरदिल इंसानों के सामने
    देखते ही देखते उस परिवार के दो लोगों ने दम तोड़ दिया.

    तस्वीरें झूठ नहीं बोलतीं वरना शायद सुनने वाले इसे भी सच नहीं मानते और
    देखने वाले साफ मुकर जाते. हम सब खुद को इंसान कहते हैं, पर हम इंसानों
    के बीच से ही चंद ऐसे लोग वो हरकत कर बैठते हैं. जिन्हें देख कर हैवान भी
    हमसे जलने लगे. फिर चाहे बात किसी ज़ुल्म की हो, हादसे की या फिर हादसे
    को देख कर खामोश रहने वाले इंसानी तमाशबीनों की.

    इतनी कड़वी बातें हम हरगिज ना कहते. पर क्या करें जब हमारे और आपके शहर
    के बीचो-बीच एक शख्स अपनी बीवी और दूधपीती बच्ची की लाशों के बीच खुद
    घायल होते हुए अपने ज़ख्मी मासूम बेटे को समेटे पूरे डेढ़ घंटे तक सड़क
    पर पड़ा मदद के लिए गिड़गिड़ाता रहे और उसकी मदद के लिए पूरे शहर की एक
    भी खिड़की ना खुले, तो फिर खुद के जिंदा होने पर शक ना हो तो क्या हो?

    दरअसल बेचैन कर देने वाली ये घटना जयपुर की गूणी टनल की हैं. एक
    हंसता-खेलता परिवार इस टनल से गुज़र रहा था कि तभी पीछे से आ रहे एक तेज
    रफ्तार ट्रक ने उस मोटर साइकिल को टक्कर मार दी जिसपर पर ये परिवार सवार
    था. हादसे के वक्त बाइक पर मियां-बीवी, उनकी दस महीने की बिटिया और चार
    साल का बेटा सवार था. ट्रक तो टक्कर मार कर भाग गया पीछे पूरा परिवार खून
    से लथपथ सड़क पर गिर पड़ा. पर तब भी सभी की सांसें चल रही थीं. परिवार का
    मुखिया खुद घायल था पर अपने बीवी बच्चों को बचाना चाहता था.

    काश! मदद की खिड़की वक्त रहते खुल जाती. क्योंकि अगर ऐसा हुआ होता तो
    इंसानियत यूं शर्मिंदा ना होती. बीच सड़क पर दस महीने की मासूम बच्ची और
    उसकी मां यूं सिसक-सिसक और तड़प-तड़प कर ना मरती.

    सीसीटीवी फुटेज के मुताबिक परिवार का मुखिया घायल कन्हैया किसी तरह खुद
    को संभालता है और घायल बीवी, बेटी और बेटे को समेट कर एक साथ सड़क पर ही
    रख देता है. चारों खून से लथपथ थे. उन्हें फौरन अस्पताल ले जाने की जरूरत
    थी. लिहाजा कन्हैया टनल से गुजरने वाले हर इंसान से मदद की भीख मांगता
    है.

    इस दौरान टनल से दर्जनों गाड़ियां और उसमें सवार सैकड़ों इंसान गुजरते
    हैं. कुछ गाड़ियों की रफ्तार तक कम हो जाती है. पर इंसानों की नहीं, वो
    बस देखते, सोचते, अपनी गाड़ी को बचाते और बच कर बेशर्मी के साथ निकल
    जाते. जैसे कुछ हुआ ही ना हो.

    वक्त लगातार बीतता जा रहा था. खून बेतहाशा बह रहा था. सांसें हर पल दम
    घोंट रही थी. इस, दौरान ना मालूम, कितने ही ट्रक, बस, कार, जीप, टैंपो,
    बाइक गुज़र गए. पर उऩमें शायद एक भी इंसान सवार नहीं था. क्योंकि कोई
    रुका ही नहीं.

    अलबत्ता हर गुज़रती गाड़ी को चलाने वाला इंसान इस बात का ख्याल जरूर कर
    रहा था कि बीच सड़क पर घायल इंसानों से उनकी गाड़ी ना टकरा जाए. इसलिए वो
    स्पीड कम करते फिर उन घायलों से कन्नी काटते गुज़र जाते.

    दूसरी तरफ कन्हैया हर आती गाड़ी को जिंदगी की नज़र से देखता. खून से लथपथ
    होते हुए भी पूरी हिम्मत से फिर अपनी हिम्मत समेटता. उन्हें आवाज देता,
    उन्हें पुकारता और जैसे ही वो बिना रुके गुजर जाते, वो फिर कभी अपने
    बेटे, कभी बेटी, तो कभी बीवी से लिपट जाता. रोता, सिर पीटता और फिर अगली
    गाड़ी को बेबसी से देखने लगता कि शायद उनमें तो कोई इंसान नज़र आ जाए.

    और इस तरह इंसानों की उम्मीद में ना सिर्फ इंसानियत दम तोड़ती गई. बल्कि
    पहले कन्यैहा की दस महीने की मासूम ने सड़क पर दम तोड़ा और फिर उसके कुछ
    देर बाद ही उसकी बीवी ने भी पथरीली सड़क पर ही पत्थरदिल शहर को अलविदा कह
    दिया.

    पर कन्हैया अब भी नहीं थका था. अब भी वो पागलों की तरह रो रहा था, चीख
    रहा था. गिड़गिड़ा रहा था, हाथ जोड़ रहा था, कि कम से कम कोई उसके बेटे
    को तो बचा ले. आखिरकार करीब डेढ़ घंटे बाद एक मोटर साइकिल सवार के अंदर
    का इंसान जाग ही उठा. पहले वो रुका, फिर उसे देख कर दूसरा रुके, फिर
    तीसरा रुका और तब कहीं जाकर कन्हैया की इंसानों की खोज खत्म हुई. पर काश!
    यही इंसान कुछ देर पहले अगर इंसान बन जाते तो क्या पता कन्यैहा की बीवी
    और बेटी बच जाते.

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