आजादी से अब तक रूपये की यात्रा
Journey of Indian rupee since independence
भारतीय रूपया रसातल की ओर है। कहाँ जाकर रूकेगा, कहना मुश्किल है।
जानकारों ने कह दिया है कि एक डॉलर का यह मूल्य सत्तर रुपए पार कर जाए तो
भी कोई आश्चर्य नहीं है। रूपये की यह गिरती कीमत डॉलर के मुकाबले है। उस
डॉलर के मुकाबले जो अमेरिका की करंसी है और दुनिया के अधिकांश देश जिस
डॉलर में व्यापार करते हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था के माहौल में रूपये की
गिरती सेहत सचमुच हमारे लिए चिंता का विषय है लेकिन खुद रूपये की अपनी
क्या कहानी है? क्या है उसका इतिहास और कैसे वह डॉलर के मुकाबले इतना
बीमार हो गया? आजादी के बाद 66 साल तक रूपये की कहानी, खुद रूपये की
जुबानी-
मेरा नाम रुपया है ! मैं गिरता हूँ तो डॉलर इतराने लगता है। आजादी के बाद
बड़ा ही उतार-चढ़ाव भरा रहा है मेरा सफर ! मेरे लुढ़कने के बारे में तो आप
रोज सुनते हैं लेकिन 66 सालों के मेरे सफर के बारे में जानना भी कम
दिलचस्प नहीं है।
लोग मुझे रुपए के नाम से जानते हैं। जब मैं लुढ़कता हूं तो डॉलर खूब
इतराता है। एक बार फिर शान से खड़ा है डॉलर। मैं पहले इतना बीमार कभी
नहीं था। 1947 में जब भारत आजाद हुआ, उस वक्त मैं भी डॉलर के साथ कंधे से
कंधा मिलाकर चलता था। उस दौर में मेरा यानि भारतीय रुपए का मूल्य अमेरिकी
डॉलर के बराबर हुआ करता था। लेकिन आज डॉलर की हैसियत मेरे मुकाबले 62
गुना बढ़ गई है। इसका अर्थ यह हुआ कि मेरे मूल्य में पिछले 66 वर्षो में
डॉलर की तुलना में 62 गुना गिरावट हुई है। स्वतंत्रता के बाद से मेरी
कीमत लगातार घटती रही है। हाल के महीनों में तो पूरे एशिया में सबसे
ज्यादा अवमूल्यन मेरा (रुपया) का ही हुआ है। हालात यह हैं कि आज मैं
दुनिया भर में सबसे ज्यादा अवमूल्यन दर्शाने वाली मुद्राओं की सूची में
चौथे पायदान पर पहुँच गया हूँ।
66 साल पहले आजादी के वक्त देश पर कोई विदेशी कर्ज नहीं था। 27 दिसम्बर
1947 को भारत के वर्ल्ड बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का सदस्य बनने
के बाद यह सिलसिला टूटने जा रहा था। इन दोनों संस्थाओं में सदस्य देश
सहयोग राशि जमा करते रहे और फिर जरूरत पड़ने पर कर्ज भी लेते रहे। भारत
भी इस दौड़ में शामिल हो चुका था। 1947 से 1952 तक दोनों संस्थाओं में
इसने अरबों डॉलर सहयोग राशि जमा की। 1952 में ही पंचवर्षीय योजना के
कार्यान्वयन के लिए भारत को कर्जे की जरूरत पड़ी। अरबों रुपये अंशदान के
रूप में डकार चुके इन दोनों संस्थाओं ने भारत को कर्ज देने के एवज में
रुपए के अवमूल्यन करने की शर्त रखी। भारत ने अपने रुपए की कीमत, जो उस
समय अमेरिका के डॉलर के बराबर हुआ करता था, उसे गिरा दिया। फिर लगभग सभी
पंचवर्षीय योजनाओं के समय भारत ने कर्ज लिया और शर्त स्वरूप रुपए की कीमत
कम होती रही।
एक तरह से सरकार ने मेरे गिरने और उठने की कमान अमेरिका जैसे ताकतवर
देशों के हाथों में सौंप दी। मेरी कीमत 1948 से 1966 के बीच 4.79 रुपए
प्रति डॉलर तय हो गई। चीन के साथ 1962 में और पाकिस्तान के साथ 1965 में
हुए युद्धों के भार से भारत का बजट घाटा बढ़ने आर्थिक संकट गहराने लगा।
इससे बाध्य होकर तत्कालीन इन्दिरा गाँधी की सरकार ने मेरा (रुपए का)
अवमूल्यन किया और डॉलर की कीमत 7.57 रुपए तय की गई। मेरा संबंध 1971 में
ब्रिटिश मुद्रा से खत्म कर दिया गया और उसे सीधे तौर पर अमेरिकी मुद्रा
से जोड़ दिया गया। भारतीय रुपए की कीमत 1975 में तीन मुद्राओं- अमेरिकी
डॉलर, जापानी येन और जर्मन मार्क के साथ संयुक्त कर दी गई। उस समय एक
डॉलर की कीमत 8.39 रुपए थी।
1985 में फिर मेरी कीमत गिरकर 12 रुपए प्रति डॉलर हो गई। सिलसिला यहीं पर
खत्म नहीं हुआ। भारत के सामने 1991 में भुगतान संतुलन का एक गंभीर संकट
पैदा हो गया और वह अपनी मुद्रा में तीव्र गिरावट के लिए बाध्य हुआ। देश
उस समय महंगाई, कम वृद्धि दर और विदेशी मुद्रा की कमी से जूझ रहा था।
विदेशी मुद्रा तीन हफ्तों के आयात के लिए भी पर्याप्त नहीं थी। इन
परिस्थितियों से उबरने के लिए सरकार ने एक बार फिर मेरा अवमूल्यन कर दिया
गया। अब मेरी कीमत 17.90 रुपए प्रति डॉलर तय की गई।
यह वही दौर था जब वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण जैसे जुमले दुनिया भर
में अपना पैर पसार रहे थे। वास्तव में ये शब्द वर्ल्ड बैंक और
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी वैश्विक संस्थाओं के गढ़े हुए हैं। भारत भी
इन जुमलों से अछूता न रह सका। सन् 1991 में उदारीकरण, वैश्वीकरण और
निजीकरण की आवाज भारत की फिजाओं में गूंजने लगी। तत्कालीन वित्तमंत्री
मनमोहन सिंह इसके अगुआ बने। वर्ल्ड बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की
शर्तों के जाल में भारत उलझने लगा। बाद में आयात शुल्क खत्म कर दिया गया
और हमारे स्टॉक एक्सचेंज के दरवाजे भी विदेशी निवेश के लिये खोल दिए गए।
विदेशी निवेश की यहाँ बाढ़ सी आने लगी और हमारा स्टॉक मार्केट, घरेलू
बाजार की तरह धीरे-धीरे विदेशियों के कब्जे में जाने लगा। चारों तरफ
विदेशी शराब, विदेशी बैंक, विदेशी ठंडा और विदेशी मॉल नजर आने लगे।
विडंबना यह है कि इसी को हम विकास मान रहे थे। जबकि भीतर से लगातार
बिगड़ती मेरी हालत के बारे में किसी को ख्याल नहीं आया।
वर्ष 1993 स्वतंत्र भारत की मुद्रा के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण है। इस
वर्ष मुझे यानी रुपए को बाजार के हिसाब से परिवर्तनीय घोषित कर दिया गया।
मेरी कीमत अब मुद्रा बाजार के हिसाब से तय होनी थी। इसके बावजूद यह
प्रावधान था कि मेरी कीमत अत्यधिक अस्थिर होने पर भारतीय रिजर्व बैंक दखल
देगा। 1993 में डॉलर की कीमत 31.37 रुपए थी। 2001 से 2010 के दौरान डॉलर
की कीमत 40 से 50 रुपए के बीच बनी रही। मेरा मूल्य सबसे ऊपर 2007 में
रहा, जब डॉलर की कीमत 39 रुपए थी। 2008 की वैश्विक मंदी के समय से भारतीय
रुपए की कीमत में गिरावट का दौर शुरू हुआ। पिछले कुछ समय से बढ़ती
महंगाई, व्यापार और निवेश से जुड़े आंकड़ों के प्रभाव से मेरी स्थिति
अत्यधिक कमजोर हो गई है। प्रधानमंत्री फिर शॉर्टकट ढूंढ रहे हैं,
वित्तमंत्री हाथ-पांव मार रहे हैं, लेकिन मेरे मर्ज की दवा कहीं नजर नहीं
आ रही।
वर्ष दर
(रुपए प्रति डॉलर)
1947 1
1948-1966 4.79
1966 7.50
1975 8.39
1980 7.86
1985 12.38
1990 17.01
1993 (बाजार के हिसाब से परिवर्तनीय घोषित) 31.37
1995 32.43
2000 43.50
2005 (जनवरी) 43.47
2006 (जनवरी) 45.19
2007 (जनवरी) 39.42
2008 (अक्तूबर) 48.88
2009 (अक्तूबर) 46.37
2010 (जनवरी) 46.21
2011 (अप्रैल) 44.17
2011 (सितम्बर) 48.24
2011 (नवम्बर) 55.40
2012 (जून) 57.15
2013 (15 मई) 54.73
2013 (29 अगस्त 2013) 68.80
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भारतीय रूपया रसातल की ओर है। कहाँ जाकर रूकेगा, कहना मुश्किल है।
जानकारों ने कह दिया है कि एक डॉलर का यह मूल्य सत्तर रुपए पार कर जाए तो
भी कोई आश्चर्य नहीं है। रूपये की यह गिरती कीमत डॉलर के मुकाबले है। उस
डॉलर के मुकाबले जो अमेरिका की करंसी है और दुनिया के अधिकांश देश जिस
डॉलर में व्यापार करते हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था के माहौल में रूपये की
गिरती सेहत सचमुच हमारे लिए चिंता का विषय है लेकिन खुद रूपये की अपनी
क्या कहानी है? क्या है उसका इतिहास और कैसे वह डॉलर के मुकाबले इतना
बीमार हो गया? आजादी के बाद 66 साल तक रूपये की कहानी, खुद रूपये की
जुबानी-
मेरा नाम रुपया है ! मैं गिरता हूँ तो डॉलर इतराने लगता है। आजादी के बाद
बड़ा ही उतार-चढ़ाव भरा रहा है मेरा सफर ! मेरे लुढ़कने के बारे में तो आप
रोज सुनते हैं लेकिन 66 सालों के मेरे सफर के बारे में जानना भी कम
दिलचस्प नहीं है।
लोग मुझे रुपए के नाम से जानते हैं। जब मैं लुढ़कता हूं तो डॉलर खूब
इतराता है। एक बार फिर शान से खड़ा है डॉलर। मैं पहले इतना बीमार कभी
नहीं था। 1947 में जब भारत आजाद हुआ, उस वक्त मैं भी डॉलर के साथ कंधे से
कंधा मिलाकर चलता था। उस दौर में मेरा यानि भारतीय रुपए का मूल्य अमेरिकी
डॉलर के बराबर हुआ करता था। लेकिन आज डॉलर की हैसियत मेरे मुकाबले 62
गुना बढ़ गई है। इसका अर्थ यह हुआ कि मेरे मूल्य में पिछले 66 वर्षो में
डॉलर की तुलना में 62 गुना गिरावट हुई है। स्वतंत्रता के बाद से मेरी
कीमत लगातार घटती रही है। हाल के महीनों में तो पूरे एशिया में सबसे
ज्यादा अवमूल्यन मेरा (रुपया) का ही हुआ है। हालात यह हैं कि आज मैं
दुनिया भर में सबसे ज्यादा अवमूल्यन दर्शाने वाली मुद्राओं की सूची में
चौथे पायदान पर पहुँच गया हूँ।
66 साल पहले आजादी के वक्त देश पर कोई विदेशी कर्ज नहीं था। 27 दिसम्बर
1947 को भारत के वर्ल्ड बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का सदस्य बनने
के बाद यह सिलसिला टूटने जा रहा था। इन दोनों संस्थाओं में सदस्य देश
सहयोग राशि जमा करते रहे और फिर जरूरत पड़ने पर कर्ज भी लेते रहे। भारत
भी इस दौड़ में शामिल हो चुका था। 1947 से 1952 तक दोनों संस्थाओं में
इसने अरबों डॉलर सहयोग राशि जमा की। 1952 में ही पंचवर्षीय योजना के
कार्यान्वयन के लिए भारत को कर्जे की जरूरत पड़ी। अरबों रुपये अंशदान के
रूप में डकार चुके इन दोनों संस्थाओं ने भारत को कर्ज देने के एवज में
रुपए के अवमूल्यन करने की शर्त रखी। भारत ने अपने रुपए की कीमत, जो उस
समय अमेरिका के डॉलर के बराबर हुआ करता था, उसे गिरा दिया। फिर लगभग सभी
पंचवर्षीय योजनाओं के समय भारत ने कर्ज लिया और शर्त स्वरूप रुपए की कीमत
कम होती रही।
एक तरह से सरकार ने मेरे गिरने और उठने की कमान अमेरिका जैसे ताकतवर
देशों के हाथों में सौंप दी। मेरी कीमत 1948 से 1966 के बीच 4.79 रुपए
प्रति डॉलर तय हो गई। चीन के साथ 1962 में और पाकिस्तान के साथ 1965 में
हुए युद्धों के भार से भारत का बजट घाटा बढ़ने आर्थिक संकट गहराने लगा।
इससे बाध्य होकर तत्कालीन इन्दिरा गाँधी की सरकार ने मेरा (रुपए का)
अवमूल्यन किया और डॉलर की कीमत 7.57 रुपए तय की गई। मेरा संबंध 1971 में
ब्रिटिश मुद्रा से खत्म कर दिया गया और उसे सीधे तौर पर अमेरिकी मुद्रा
से जोड़ दिया गया। भारतीय रुपए की कीमत 1975 में तीन मुद्राओं- अमेरिकी
डॉलर, जापानी येन और जर्मन मार्क के साथ संयुक्त कर दी गई। उस समय एक
डॉलर की कीमत 8.39 रुपए थी।
1985 में फिर मेरी कीमत गिरकर 12 रुपए प्रति डॉलर हो गई। सिलसिला यहीं पर
खत्म नहीं हुआ। भारत के सामने 1991 में भुगतान संतुलन का एक गंभीर संकट
पैदा हो गया और वह अपनी मुद्रा में तीव्र गिरावट के लिए बाध्य हुआ। देश
उस समय महंगाई, कम वृद्धि दर और विदेशी मुद्रा की कमी से जूझ रहा था।
विदेशी मुद्रा तीन हफ्तों के आयात के लिए भी पर्याप्त नहीं थी। इन
परिस्थितियों से उबरने के लिए सरकार ने एक बार फिर मेरा अवमूल्यन कर दिया
गया। अब मेरी कीमत 17.90 रुपए प्रति डॉलर तय की गई।
यह वही दौर था जब वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण जैसे जुमले दुनिया भर
में अपना पैर पसार रहे थे। वास्तव में ये शब्द वर्ल्ड बैंक और
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी वैश्विक संस्थाओं के गढ़े हुए हैं। भारत भी
इन जुमलों से अछूता न रह सका। सन् 1991 में उदारीकरण, वैश्वीकरण और
निजीकरण की आवाज भारत की फिजाओं में गूंजने लगी। तत्कालीन वित्तमंत्री
मनमोहन सिंह इसके अगुआ बने। वर्ल्ड बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की
शर्तों के जाल में भारत उलझने लगा। बाद में आयात शुल्क खत्म कर दिया गया
और हमारे स्टॉक एक्सचेंज के दरवाजे भी विदेशी निवेश के लिये खोल दिए गए।
विदेशी निवेश की यहाँ बाढ़ सी आने लगी और हमारा स्टॉक मार्केट, घरेलू
बाजार की तरह धीरे-धीरे विदेशियों के कब्जे में जाने लगा। चारों तरफ
विदेशी शराब, विदेशी बैंक, विदेशी ठंडा और विदेशी मॉल नजर आने लगे।
विडंबना यह है कि इसी को हम विकास मान रहे थे। जबकि भीतर से लगातार
बिगड़ती मेरी हालत के बारे में किसी को ख्याल नहीं आया।
वर्ष 1993 स्वतंत्र भारत की मुद्रा के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण है। इस
वर्ष मुझे यानी रुपए को बाजार के हिसाब से परिवर्तनीय घोषित कर दिया गया।
मेरी कीमत अब मुद्रा बाजार के हिसाब से तय होनी थी। इसके बावजूद यह
प्रावधान था कि मेरी कीमत अत्यधिक अस्थिर होने पर भारतीय रिजर्व बैंक दखल
देगा। 1993 में डॉलर की कीमत 31.37 रुपए थी। 2001 से 2010 के दौरान डॉलर
की कीमत 40 से 50 रुपए के बीच बनी रही। मेरा मूल्य सबसे ऊपर 2007 में
रहा, जब डॉलर की कीमत 39 रुपए थी। 2008 की वैश्विक मंदी के समय से भारतीय
रुपए की कीमत में गिरावट का दौर शुरू हुआ। पिछले कुछ समय से बढ़ती
महंगाई, व्यापार और निवेश से जुड़े आंकड़ों के प्रभाव से मेरी स्थिति
अत्यधिक कमजोर हो गई है। प्रधानमंत्री फिर शॉर्टकट ढूंढ रहे हैं,
वित्तमंत्री हाथ-पांव मार रहे हैं, लेकिन मेरे मर्ज की दवा कहीं नजर नहीं
आ रही।
वर्ष दर
(रुपए प्रति डॉलर)
1947 1
1948-1966 4.79
1966 7.50
1975 8.39
1980 7.86
1985 12.38
1990 17.01
1993 (बाजार के हिसाब से परिवर्तनीय घोषित) 31.37
1995 32.43
2000 43.50
2005 (जनवरी) 43.47
2006 (जनवरी) 45.19
2007 (जनवरी) 39.42
2008 (अक्तूबर) 48.88
2009 (अक्तूबर) 46.37
2010 (जनवरी) 46.21
2011 (अप्रैल) 44.17
2011 (सितम्बर) 48.24
2011 (नवम्बर) 55.40
2012 (जून) 57.15
2013 (15 मई) 54.73
2013 (29 अगस्त 2013) 68.80
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