Rss Feed
Story (104) जानकारी (41) वेबसाइड (38) टेक्नॉलोजी (36) article (28) Hindi Quotes (21) अजब-गजब (20) इंटरनेट (16) कविता (16) अजब हैं लोग (15) तकनीक (14) समाचार (14) कहानी Story (12) नॉलेज डेस्क (11) Computer (9) ऐप (9) Facebook (6) ई-मेल (6) करियर खबरें (6) A.T.M (5) बॉलीवुड और मनोरंजन ... (5) Mobile (4) एक कथा (4) पासवर्ड (4) paytm.com (3) अनमोल वचन (3) अवसर (3) पंजाब बिशाखी बम्पर ने मेरी सिस्टर को बी दीया crorepati बनने का मोका . (3) माँ (3) helpchat.in (2) कुछ मेरे बारे में (2) जाली नोट क्‍या है ? (2) जीमेल (2) जुगाड़ (2) प्रेम कहानी (2) व्हॉट्सऐप (2) व्हॉट्सेएप (2) सॉफ्टवेर (2) "ॐ नमो शिवाय! (1) (PF) को ऑनलाइन ट्रांसफर (1) Mobile Hacking (1) Munish Garg (1) Recharges (1) Satish Kaul (1) SecurityKISS (1) Technical Guruji (1) app (1) e (1) olacabs.com (1) olamoney.com (1) oxigen.com (1) shopclues.com/ (1) yahoo.in (1) अशोक सलूजा जी (1) कुमार विश्वास ... (1) कैटरिंग (1) खुशवन्त सिंह (1) गूगल अर्थ (1) ड्रग साइट (1) फ्री में इस्तेमाल (1) बराक ओबामा (1) राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला (1) रिलायंस कम्यूनिकेशन (1) रूपये (1) रेडक्रॉस संस्था (1) लिखिए अपनी भाषा में (1) वोटर आईडी कार्ड (1) वोडाफोन (1)

लिखिए अपनी भाषा में

  1. भारत और वैश्विक बिरादरी इस बात को लेकर चर्चा करने लगे हैं कि जिस
    जनसांख्यिकीय मोर्चे पर भारत लाभ की स्थिति में है, देश को इस सदी के
    मध्य तक उसका लाभ उठाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या प्रभाग के
    आंकड़े तो वास्तव में यह दर्शाते हैं कि वर्ष 2040 तक दक्षिण एशिया की
    कुल जनसंख्या में 15 से 64 साल की आयु वर्ग के कामकाजी समूह की
    हिस्सेदारी बढऩे वाली है और नवनिर्माण के दौर से गुजर रहे अफगानिस्तान
    में वर्ष 2075 तक ऐसा हो पाएगा।

    असल चुनौती इस आबादी को पोषण और शिक्षा के जरिये बेहतर नागरिक के रूप में
    ढालने की है। यह कुछ उसी तरह से है कि बचत कहीं उत्पादक निवेश के बजाय
    गैर निष्पादित आस्तियों में न तब्दील हो जाए जैसा रुझान भारतीय बैंकिंग
    तंत्र में वक्त के साथ निरंतर बढ़ता जा रहा है।

    साथ ही साथ दक्षिण एशिया में हर कहीं गांव से शहर की ओर विस्थापन में भी
    तेजी आएगी और वर्ष 2050 तक भारत में शहरी आबादी 50 फीसदी के स्तर पर
    पहुंच जाएगी और इसके साथ ही स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे बुनियादी ढांचों को
    बेहतर करने की चुनौती मुंह बाए खड़ी होगी-और इस चुनौती से निपटने की
    जरूरत भी होगी।

    इस जरूरत के लिए भारत में वित्तीय बंदोबस्त कौन करेगा? भारत में वर्ष
    2010 के दौरान रोजाना 10 से 100 डॉलर खर्च करने वालों की संख्या कुल
    आबादी के 5 फीसदी के बराबर थी जबकि श्रीलंका में यही आंकड़ा 20 फीसदी के
    स्तर पर था। दूसरी बात कि इस छोटे से आर्थिक अभिजात्य वर्ग के लिए तब तक
    पोषण और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी ढांचे के लिए खर्च करना बेहद मुश्किल
    होगा जब तक कि यह सुनिश्चित न हो जाए कि एक-एक पैसा सही जगह पर खर्च हो
    रहा है। कुल मिलाकर बाल पोषण और स्वास्थ्य की दशा बेहद दयनीय है।

    वर्ष 2005-06 के दौरान ग्रामीण इलाकों में 3 साल से कम उम्र के 45 फीसदी
    बच्चों की स्थिति बहुत खतरनाक थी, जबकि 40 फीसदी से अधिक कम वजन के थे और
    20 फीसदी से अधिक बच्चे नहीं रहे। तीसरी बात यही है कि शहरी इलाकों में
    तस्वीर एकदम उलट रही। वहां 10 से 20 फीसदी बच्चों की हालत ही खराब कही जा
    सकती थी।

    इन नतीजों को मां की शिक्षा ने काफी प्रभावित किया। जिन माताओं ने 10वीं
    तक की भी शिक्षा हासिल नहीं की उनके 45 फीसदी बच्चे खतरनाक स्थिति में
    पहुंच गए, 50 फीसदी का वजन सामान्य से कम रहा जबकि 25 फीसदी नहीं रहे।
    वहीं जिन माताओं को भली-भांति शिक्षा मिली उनके लिए ये आंकड़े 30 से 60
    फीसदी तक कम खराब रहे, निश्चित रूप से यह एक बड़ा अंतर है। शिक्षा से
    जुड़े आंकड़े कम खतरनाक लगते हैं। देश के शहरी और ग्रामीण इलाकों में 6
    से 10 वर्ष की आयु के सभी बच्चे प्राथमिक शिक्षा के लिए स्कूल जाते हैं।
    कक्षा 6 से 8 के स्तर पर ग्रामीण इलाकों के 80 फीसदी और शहरी क्षेत्रों
    के 90 फीसदी बच्चे स्कूल जाते हैं, कक्षा 9 से 10 के लिए ग्रामीण
    क्षेत्रों में यही औसत 60 फीसदी और शहरी क्षेत्रों में 80 फीसदी से ऊपर
    है जबकि 40 फीसदी ग्रामीण और 60 फीसदी शहरी बच्चे 11वीं और 12वीं की
    पढ़ाई करते हैं।

    चौथी बात कि शिक्षा के बढ़ते स्तर के साथ ही लड़कियों की हिस्सेदारी कम
    होती जाती है जो लड़कों की तुलना में 5 से 15 फीसदी तक कम होती जाती है
    लेकिन यहां पर हालात उतने बुरे भी नहीं है जैसा कि अंदाजा लगाया जाता है।
    स्कूलों में दाखिले से जो फायदा होता दिखता है वह शिक्षा जारी न रख पाने
    के रुझान से काफूर हो जाता है। बढ़ती उम्र के साथ शिक्षा के साथ मोहभंग
    का स्तर भी बढ़ता जाता है।

    शिक्षा को जारी न रख पाने की वजह बेहद कष्टदायी हैं। सबसे बड़ी वजह पैसों
    की तंगी और कम दिलचस्पी ही है। साथ ही साथ जल्द से जल्द काम शुरू करना और
    शिक्षा के जरूरी स्तर को हासिल करने जैसे कुछ और कारण भी हैं। वहीं
    लड़कियों की पढ़ाई जारी न रख पाने की दो वजहें सामने आती हैं-एक तो
    उन्हें शादी की वजह से पढ़ाई छोडऩी पड़ती है वहीं माता-पिता भी लड़कियों
    की शिक्षा में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाते। भले ही भारतीय बच्चे पढ़ाई
    के लिए दाखिला ले रहे हैं लेकिन उनमें से कई को पढ़ाई पूरी होने से पहले
    ही उस पर विराम लगाना पड़ता है। लड़कों के लिए रोजी-रोटी का सवाल खड़ा
    होता है और ऐसे में उन्हें रोजगार के लिए पढ़ाई छोडऩी पड़ती है तो शादी
    के कारण लड़कियों की पढ़ाई रुक जाती है और इस तरह कम उम्र में ही मां
    बनने का दुष्चक्र चलता रहता है और वही सिलसिला दोहराया जाता है जिसमें
    मां कुपोषण का शिकार हुए बच्चों को पालती हैं।

    मध्याह्न भोजन जैसी सरकारी योजनाओं की वजह से बच्चों को उनकी कई
    चुनौतियों और दुश्वारियों के बावजूद स्कूल में बरकरार रखने में काफी मदद
    मिली है लेकिन जो गुणवत्ता शिक्षा को दिलचस्प बनाती है, वह भी स्कूल से
    मोहभंग की बड़ी वजह बन रही है। कई सर्वेक्षण और भी व्यापक खुलासे करते
    हैं। कई आंकड़े यही सुझाते हैं कि पोषण और शिक्षा के मौजूदा स्तर से
    जनसांख्यिकी लाभ का फायदा उठाना संभव नहीं हो पाएगा।

    अगर शिक्षा की मात्रा से अलग हटकर उसकी गुणवत्ता की बात करें तो पश्चिमी
    मानदंडों के हिसाब से उसे संदिग्ध दृष्टि के साथ देखा जाता है, यहां तक
    कि यह बात संपन्न बच्चों पर भी लागू होती है। पाठ्यक्रम, कक्षा में पढ़ाई
    और परीक्षाओं के लिए बेहद सामान्य मानकीकरण किए गए हैं। यहां तक कि एक ही
    राज्य में विद्यालय अलग-अलग तौर तरीके अपनाते हैं। एक व्यापक अपेक्षा यही
    की जाती है कि छात्रों को स्वतंत्र या नवीन तरीके से सोचने के बजाय रटन
    विद्या पर ज्यादा जोर देना चाहिए।

    यहां सवाल यही उठता है कि क्या हम रटन विद्या पर जोर देने की स्थिति को
    बदल पाएंगे ताकि छात्र खुद अपनी एक सोच विकसित कर सकें? क्या वे किसी
    पेंटिंग की तारीफ कर सकते हैं या फिर स्कूल से बाहर कोई किताब पढ़कर उसका
    आकलन कर सकते हैं? क्या उन्हें खुद को व्यक्त करने का मौका दिया जाएगा,
    भले ही वे चिल्लाकर ही ऐसा करना चाहें लेकिन इसके लिए उन्हें घुड़कना
    नहीं होगा? क्या वे अपनी कक्षा में अध्यापक के पढ़ाने की शैली की आलोचना
    कर सकते हैं?

    ऊंची उपलब्धि हासिल करने वाले छात्रों का प्रशंसागान और ढीले ढाले रवैये
    से विषमता झलकती है-कुल मिलाकर बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले छात्रों को
    बढ़ावा देना स्कूल की ख्याति को ही बढ़ाएगा। हालांकि अधिकता मध्यम दर्जे
    के छात्रों की ही होती है जो अपने खतरों को दूर करने में ही लगे रहते हैं
    जो न तो स्कूल की साख को बट्टा लगाते हैं और न ही गौरव बढ़ाते हैं। दूसरे
    देशों से क्या सबक मिलता है?

    हम फिर दोहराते हैं कि इसी महीने हमने शिक्षा दिवस मनाया। हमें
    जनसांख्यिकीय मोर्चे पर लाभ की स्थिति बनाने के लिए युद्घस्तर पर काम
    करना होगा। यह केवल मजबूत नियंत्रण के साथ ही फलीभूत हो सकता है जहां
    गड़बडिय़ों के लिए कोई जगह न हो। सार्वजनिक व्यय की उत्पादकता बेहतर करनी
    होगी और स्कूलों को मिलने वाली राशि की उचित निगरानी रखनी होगी कि कहीं
    कोई स्कूल किसी बच्चे को मध्याह्न भोजन से वंचित तो नहीं रख रहा है। किसी
    चीज को पाने और खोने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। इसलिए हमें तय करना होगा
    कि कौन सा रास्ता अख्तियार करना होगा।

    - पार्थसारथी शोम
    साभार: बिज़नेस स्टैंडर्ड

    --
    यदि आपके पास Hindi में कोई article, inspirational story या जानकारी है
    जो आप हमारे साथ share करना चाहते हैं तो कृपया उसे अपनी फोटो के साथ
    E-mail करें. हमारी Id है:kuchkhaskhabar@gmail.com.पसंद आने पर हम उसे
    आपके नाम और फोटो के साथ यहाँ PUBLISH करेंगे.

    www.kuchkhaskhabar.com

  2. 0 comments:

    Post a Comment

    Thankes

Powered byKuchKhasKhabar.com